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Tuesday, December 27, 2011

नासिर काज़मी का कलाम


(जदीद (आधुनिक)उर्दू ग़ज़ल की बुनियाद रखने वाले अज़ीम शायर नासिर काज़मी को नए दौर का "मीर " कहा जाता है-"मीर " की तरह उनको भी आसान ज़बान में दिल और दुनिया के ग़म बयान करने का हुनर आता था-"मीर " ने अगर दिल्ली उजड़ने का दर्द बयान किया था तो नासिर काज़मी ने भारत पाक बटवारे के नतीजे में इंसान और तहजीबों के बिखराव की त्रासदी को शेरों में ढाला है- नासिर काज़मी ने उर्दू ग़ज़ल को बिलकुल नया  लब-ओ-लहजा दिया -नई ग़ज़ल का शायद ही कोई ऐसा शायर होगा जिस ने उनका कुछ न कुछ असर कुबूल न किया हो-सिर्फ 48  साल की उम्र पाने वाले अलबेले शायर नासिर काज़मी की ग़ज़लें जदीद उर्दू अदब का बेश क़ीमती सरमाया हैं)
ग़ज़लें 
(1)
कहीं उजड़ी उजड़ी सी मंजिलें कहीं टूटे फूटे से बाम-ओ-दर

ये  वही  दयार  है  दोस्तों  जहाँ  लोग  फिरते  थे  रात भर


मैं  भटकता  फिरता  हूँ  देर से  यूँही शहर शहर नगर नगर

कहाँ  खो  गया  मेरा क़ाफ़िला कहाँ  रह  गए  मेरे हमसफ़र


जिन्हें  जिंदगी  का शऊर  था उन्हें बे ज़री  ने  बुझा  दिया

जो  गराँ  थे  सीना-ए-ख़ाक पर वही बन के बैठे हैं मो,तबर


मेरी बेकसी का न ग़म करो, मगर अपना फ़ायदा सोच लो

तुम्हें जिस की छाँव अज़ीज़ है मैं उसी दरख़्त का  हूँ समर


ये  बजा  कि  आज  अँधेर  है, ज़रा  रुत  बदलने  की देर है

जो खिज़ां के खौफ़ से खुश्क है वही शाख़ लायेगी बर्ग-ओ-बर 

                                                     (2)


कुछ  यादगार-ए -शहर-ए-सितमगर  ही  ले  चलें 

आए  हैं   इस  गली   में   तो  पत्थर  ही  ले  चलें 


यूँ   किस   तरह  कटेगा  कड़ी   धूप   का   सफ़र 

सर  पर  ख़याल-ए-यार  की  चादर   ही  ले  चलें 


रंज -ए -सफ़र  की  कोई  निशानी  तो  पास   हो 

थोड़ी  सी  ख़ाक-ए-कूचा-ए-दिलबर  ही  ले  चलें 


ये    कह   के   छेड़ती   है  हमें  दिल  गिरफ्तगी   

घबरा   गए   हैं   आप   तो  बाहर  ही   ले   चलें 


इस  शहर -ए -बे चराग़    में  जाएगी  तू   कहाँ 

आ ऐ  शब् -ए -फ़िराक़  तुझे   घर  ही   ले  चलें

                                           
                                                      (3)
गली गली मेरी याद बिछी है प्यारे रस्ता देख के चल

मुझ से इतनी वहशत है तो  मेरी  हदों से दूर निकल


एक समय तेरा फूल सा नाज़ुक हाथ था मेरे शानों पर

एक ये वक़्त के मैं तनहा और दुःख के काँटों का जँगल


याद है अब तक तुझ से बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे

तू  ख़ामोश  खड़ा  था  लेकिन  बातें  करता  था काजल


मैं  तो  एक नई दुनिया की  धुन में भटकता फिरता हूँ

मेरी  तुझ  से कैसे निभे गी एक हैं तेरे फ़िक्र-ओ-अमल


मेरा मुंह क्या देख रहा है  देख  इस काली रात को देख

मैं  वही  तेरा  हमराही  हूँ  साथ  मेरे चलना हो तो चल

                                                       (4)
दुख  की लहर ने  छेड़ा होगा 
याद  ने  कंकर  फेंका  होगा 
आज तो  मेरा दिल कहता है 
तू  इस  वक़्त  अकेला  होगा 
मेरे   चूमे    हुए    हाथों    से 
औरों को ख़त लिखता होगा 
भीग चलीं अब रात की पलकें 
तू  अब  थक  कर सोया  होगा 
रेल  की  गहरी सीटी  सुन कर 
रात  का  जंगल  गूंजा   होगा 
शहर  के   ख़ाली  स्टेशन  पर 
कोई   मुसाफ़िर  उतरा  होगा 
आंगन में  फिर चिड़ियाँ बोलीं 
तू   अब  सो  कर  उट्ठा   होगा 
यादों  की  जलती  शबनम से 
फूल  सा  मुखड़ा  धोया  होगा 
मोती  जैसी  शक्ल  बना कर 
आईने    को   तकता    होगा 
शाम  हुई  अब तू  भी  शायद 
अपने  घर   को   लौटा  होगा 
नीली   धुंधली   ख़ामोशी  में
तारों  की  धुन  सुनता  होगा 
मेरा  साथी   शाम  का   तारा 
तुझ  से आंख मिलाता होगा 
शाम के चलते हाथ ने तुझ को 
मेरा  सलाम  तो   भेजा   होगा 
प्यासी    कुर्लाती   कौंजों   ने 
मेरा   दुख  तो  सुनाया  होगा 
मैं   तो   आज  बहुत  रोया  हूँ 
तू   भी   शायद   रोया   होगा 
‘नासिर’ तेरा  मीत   पुराना 
तुझ  को  याद तो आता होगा
                                                      (5)
दिल में इक लहर सी उठी है अभी 
कोई   ताज़ा  हवा  चली   है  अभी 
शोर  बरपा  है  खाना -ए -दिल  में 
कोई  दीवार   सी  गिरी   है   अभी 
कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी 
और  ये   चोट   भी   नई   है  अभी 
भरी   दुनिया  में  जी  नहीं  लगता 
जाने  किस चीज़ की  कमी है अभी 
तू  शरीक-ए-सुखन नहीं  है तो क्या 
हम -सुखन  तेरी  ख़ामुशी  है  अभी 
याद   के   बे  - निशाँ   जज़ीरों   से 
तेरी   आवाज़   आ   रही   है   अभी 
शहर   की   बे  चराग़   गलियों  में 
ज़िन्दगी  तुझ  को  ढूँढती  है  अभी 
सो   गए   लोग   उस   हवेली   के 
एक  खिड़की  मगर  खुली  है अभी 
तुम  तो   यारो  अभी  से   उठ  बैठे 
शहर   में   रात   जागती   है  अभी 
वक़्त  अच्छा  भी  आयेगा  ‘नासिर’
ग़म  न  कर ज़िन्दगी  पड़ी  है अभी

Sunday, December 04, 2011

आइये हाथ उठाएं हम भी/ फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़"

(फ़ैज़ की ये मशहूर  नज़्म लोगों को आम तौर पर याद हो कि न याद हो मगर इसका पहला मिस्रा(पंक्ति) आज भी उन लोगों के जेहन में होगा जिन्हों ने दूर दर्शन पर सीरियल "हम लोग" देखा है, जिसकी शुरूआत और खात्मा इसी मिसरे (आइये हाथ उठाएं हम भी) से होता था-
ये दुआ फ़ैज़ ने उन लोगों के लिए लिखी थी जो इंसानियत के अलावा किसी मज़हब को नहीं मानते, किसी ख़ुदा को नहीं मानते-परंपरा गत तौर पर ख़ुदा से बेज़ार हैं मगर इन्सान के दुःख दर्द दूर करने के लिए उसी तरीके से दुआ माँगना चाहते हैं जैसे एक मज़हबी शख्स मांगता है-मज़हब से बेगाना मगर इंसानियत का परस्तार अगर दुआ के लिए हाथ उठाएगा तो उसका अंदाज़ क्या होगा ?यही इस नज़्म का बुनियादी ख़याल है-फिर भी ये दुआ किसी नास्तिक की नहीं बल्कि ऐसे शख्स की है जिसे ख़ुदा से शिकायत है)

आइये    हाथ    उठाएं    हम    भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं 
हम जिन्हें सोज़-ए-मोहब्बत के सिवा
कोई   बुत   कोई   ख़ुदा   याद   नहीं

आइये   अर्ज़   गुजारें   कि   निगार - ए - हस्ती
ज़हर - ए - इमरोज़  में  शीरीनी-ए-फ़रदा भर दे
वो  जिन्हें  ताब - ए- गरां बारी-ए-अय्याम नहीं
उन की पलकों पे शब-ओ-रोज़ को हल्का कर दे

जिन की आँखों को रूख़-ए-सुब्ह का यारा भी नहीं
उनकी  रातों  में  कोई  शमआ  मुनव्वर  कर  दे
जिनके क़दमों को किसी  रह  का सहारा भी नहीं
 उनकी  नज़रों   पे   कोई   राह   उजागर   कर  दे

जिनका  दीं  पैरवी-ए-कज़्ब-ओ-रिया  है  उनको
हिम्मत-ए-कुफ़्र मिले, जुरअत-ए-तहक़ीक़ मिले
जिन के सर मुन्तज़िर-ए-तैग-ए-जफ़ा हैं उनको
दस्त-ए-क़ातिल को झटक देने की तौफ़ीक़ मिले

इश्क  का  सिर्रे  निहाँ  जान-ए-तपाँ  है जिस से
आज   इक़रार   करें   और   तपिश  मिट  जाए
हर्फ़-ए-हक़ दिल में खटकता है जो कांटे की तरह
आज  इज़हार  करें   और   ख़लिश   मिट   जाए 

 मुश्किल अल्फाज़----सोज़-ए-मोहब्बत---प्रेम की आंच ,निगार-ए-हस्ती---अस्तित्व में लाने वाला   ज़हर-ए-इमरोज़ ...आज का ज़हर , शीरीनी-ए-फ़रदा ...आने वाले कल की मिठास , ताब-ए-गरां बारी-ए-अय्याम...बोझल दिन चर्या झेलने की ताक़त  ,हिम्मत-ए-कुफ़्र---इंकार की हिम्मत,जुरअत-ए-तहक़ीक़---पड़ताल करने का हौसला   दीं ...दीन(धर्म) ,पैरवी-ए-कज़्ब-ओ-रिया...झूट और पाखंड की पैरवी ,मुन्तज़िर-ए-तैग-ए-जफ़ा ...बेवफ़ाई की तलवार से कटने को तैयार  , तौफ़ीक़...प्रेरणा ,सिर्रे  निहाँ ...छुपा हुआ सत्व  ,जान-ए-तपाँ---तप तप के कुंदन बनना-

Thursday, November 24, 2011

नज़्म जिसने शायरी का ट्रेंड बदल दिया / फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़"



(यूँ तो हर शायर कोशिश करता है कि कुछ न कुछ नया कहे मगर बहुत कम शायर ऐसे होते हैं जिनकी कलम से निकले हुए शह-पारे अदब का धारा मोड़  देते हैं-उर्दू के अज़ीम शायर फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़"ऐसे ही एक शायर हैं जिन्हों ने उर्दू शायरी में हुस्न-ओ-इश्क के पैमाने ही बदल डाले और आने वाली कई नस्लों को मुतास्सिर किया-फैज़ की मशहूर तरीन नज़्म "मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग " ने शायरी में  मुहब्बत को एक नए अंदाज़ से देखने की रवायत डाली-फ़ैज़ के इस नए फलसफा-ए-इश्क़ की झलक न सिर्फ उनके दौर के शायरों में बल्कि आज तक देखने को मिलती है-फैज़ की जन्म शताब्दी(2011 ) पर हम उन्हें इसी नज़्म के साथ खिराज (श्रद्धांजलि)पेश कर रहे हैं-)

मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग   

 मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग 
मैंने समझा था कि तू  है तो  दरख्शां  है हयात 
तेरा ग़म  है तो ग़म-ए-दह्र  का झगड़ा  क्या  है 
तेरी  सूरत से  है  आलम में बहारों  को  सबात 
तेरी आँखों के सिवा दुनिया  में   रखा   क्या  है 

तू  जो  मिल जाए तो  तकदीर  निगूं  हो  जाए 
यूँ  न था  मैं  ने  फ़क़त  चाहा  था  यूँ  हो  जाए 
और  भी  दुःख  हैं  ज़माने में मुहब्बत के सिवा 
राहतें  और  भी  हैं वस्ल  की  राहत  के   सिवा 

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख्वाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक   में   लिथड़े   हुए   खून   में   नहलाए  हुए


जिस्म  निकले  हुए  अमराज़  के  तन्नूरों  से
पीप    बहती    हुई    गलते   हुए   नासूरों    से
लौट  जाती  है  इधर  को भी नज़र क्या  कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे


और  भी  दुःख  हैं ज़माने  में  मुहब्बत के सिवा 
राहतें  और  भी  हैं  वस्ल  की  राहत  के   सिवा 
मुझ  से  पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग 


मुश्किल अल्फाज़----दरख्शां ...चमकदार , ग़म-ए-दह्र ...संसार के दुःख ,सबात ...टिके रहना ,निगूं  ...झुका हुआ ,वस्ल ...मिलन ,तारीक ...अंधकारमयअतलस-ओ-कमख्वाब ...मुलायम कपड़ों की क़िस्में ,अमराज़ ...रोगों,

Saturday, November 19, 2011

परवीन शाकिर का कलाम


ग़ज़ल   


 कुछ  तो  हवा  भी सर्द थी  , कुछ था  तेरा ख्याल भी
दिल  को  ख़ुशी  के साथ साथ  होता  रहा  मलाल भी

बात  वो  आधी   रात  की , रात  वो   पूरे  चाँद  की
चाँद  भी  ऐन  चैत  का  उस  पर   तेरा  जमाल भी

सब  से नज़र  बचा  के वो मुझको कुछ ऐसे देखता
एक दफ़ा तो रुक गई  गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी

दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तरश के देख लें 
शीशा  गरान-ए-शहर  के  हाथ  का  ये   कमाल  भी

उसको  न पा सके थे  जब  दिल  का अजीब हाल था 
अब  जो  पलट  के देखिये  बात थी  कुछ मुहाल  भी

मेरी तलब था एक शख्स वो जो नहीं  मिला तो फिर
हाथ   दुआ  से   यूँ   गिरा    भूल   गया  सवाल   भी

उसकी   सुख़न  तराज़ियाँ   मेरे   लिए  भी  ढाल  थीं 
उस की हंसी में  छुप  गया अपने  ग़मों  का हाल  भी

गाह करीब-ए-शाह-ए-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख्वाब 
उस  की  रिफाक़तों  में  रात  हिज्र  भी  था  विसाल भी

उसके  ही   बाजुओं  में  और   उसको   ही  सोचते   रहे 
जिस्म  की  ख्वाहिशों  पे  थे   रूह   के  और  जाल  भी

शाम   की  नासमझ   हवा  पूछ   रही   है    इक   पता 
मौज ए हवा-ए -कूए-यार  कुछ  तो   मेरा  ख्याल  भी

मुश्किल अल्फाज़----शीशा  गरान -- कांच ka सामान बनाने वाले ,गर्दिश-ए-माह-ओ-साल -- समय चक्र ,सुख़न  तराज़ियाँ  -- बोल चाल की कला ,गाह --कभी ,शाह-ए-रग --गर्दन की नस (जिसे जीवन की रग कहते हैं), बईद-ए-वहम-ओ-ख्वाब -- सपनों और भ्रम से परे ,रिफाक़तों -- निकटताओं, हिज्र-- विरह ,विसाल-- मिलन,कूए-यार -- यार की गली 

Thursday, November 10, 2011

मजाज़ की बेहतरीन नज्में(2) /"रात और रेल"

(रात और रेल मजाज़ की सबसे मशहूर नज्मों में एक है-बज़ाहिर ये नज़्म  रात के वक़्त गुज़रती हुई रेल और उस से नज़र आने वाले मंज़रों का शायराना बयान मालूम होती है, मगर गौर से देखें तो ये महज़ एक रेल का सफ़र नहीं है-दरहकीक़त मजाज़ ने रेल के हवाले से रूमान से इन्क़ेलाब तक की दास्तान तहरीर की है, और रेल के स्टार्ट होने से ले कर पूरी रफ़्तार पकड़ने तक की मुख्तलिफ कैफ़ियतों को ज़ेह्नी इन्किलाब का सफ़रनामा बना दिया है-
जिन लोगों ने भाप के इंजन वाली रेल गाड़ियों को सुनसान रास्तों पर भागते देखा है,उन पर बैठ कर सफ़र किया है ,या रेल की पुरानी सीटी और छुक छुक की लय ताल से जुड़े रूमान को महसूस किया है ,उन्हें ये नज़्म पढ़ते वक़्त एक naustelgia का एहसास होना लाज़मी है मगर जिन्हों ने वो दौर नहीं देखा वो भी इस नज़्म की रवानी, तसलसुल और हुस्न से मुतास्सिर हुए बगैर नहीं रह सकते-यही  इस नज़्म की सब से बड़ी कामयाबी है-) 

रात और रेल 


फिर  चली  है  रेल   स्टेशन  से  लहराती  हुई
नीम शब की ख़ामुशी में ज़ेर-ए-लब गाती हुई
डगमगाती , झूमती , सीटी  बजाती , खेलती
वादी-ओ-कुहसार  की  ठंडी  हवा  खाती  हुई
तेज़ झोंकों में वो छमछम का सुरूद-ए-दिलनशीं
आँधियों  में  मंह  बरसने  की  सदा  आती  हुई
जैसे मौजों का तरन्नुम जैसे जलपरियों के गीत
एक  इक  लय  में  हज़ारों  ज़मज़मे  गाती  हुई
नौनिहालों  को  सुनाती  मीठी  मीठी लोरियां
नाज़नीनों  को  सुनहरे  ख़्वाब  दिखलाती हुई
ठोकरें  खा कर लचकती ,गुनगुनाती , झूमती
सरखुशी  में  घुंघरुओं  की  ताल पर गाती हुई
नाज़ से हर मोड़ पर खाती हुई सौ पेच-ओ-ख़म 
इक  दुल्हन  अपनी अदा से आप  शरमाती हुई
रात की  तारीकियों  में  झिलमिलाती , कांपती
पटरियों  पर  दूर  तक  सीमाब  छलकाती  हुई
जैसे आधी रात को निकली हो इक शाही बरात
शादियानों  की  सदा  से  वज्द  में  आती  हुई
मुन्तशिर कर के फ़ज़ा में जा-ब-जा चिंगारियां
दामन-ए-मौज-ए-हवा  में  फूल  बरसाती  हुई
तेज़ तर होती हुई मंज़िल-ब-मंज़िल दम-ब-दम
रफ़्ता  रफ़्ता  अपना  असली  रूप दिखलाती हुई
सीना-ए-कुहसार  पर  चढ़ती  हुई  बे अख्तियार
एक  नागिन  जिस  तरह मस्ती में लहराती हुई
इक  सितारा  टूट  कर  जैसे  रवां  हो  अर्श  से
रिफ़अत-ए-कुहसार  से  मैदान  में  आती  हुई
इक  बगूले   की  तरह  बढती  हुई   मैदान  में
जंगलों  में  आँधियों  का  ज़ोर दिखलाती  हुई
रा,शा-बर-अन्दाम करती अंजुम-ए-शब्ताब को
आशियाँ  में  तायर-ए-वहशी  को  चौंकाती  हुई
याद  आ  जाए  पुराने   देवताओं   का   जलाल
उन  क़यामत  खेज़ियों  के साथ बल खाती हुई
एक  रख्श-ए-बे अनाँ की बर्क रफ्तारी के साथ
ख़न्दकों  को   फांदती  टीलों  से  कतराती  हुई
मुर्ग़ ज़ारों  में  दिखाती  जू-ए-शीरीं  का खराम
वादियों  में   अब्र  के  मानिन्द  मंडलाती  हुई
इक  पहाड़ी  पर  दिखाती आबशारों की झलक
इक  बियाबाँ  में  चिराग़-ए-तूर दिखलाती हुई
जुस्तजू में मंजिल-ए-मक़सूद की दीवाना वार
अपना सर धुनती  फ़ज़ा में बाल बिखराती हुई
छेड़ती इक वज्द के आलम में साज़-ए-सरमदी
गैज़  के  आलम  में  मुंह  से  आग बरसाती हुई
रेंगती  , मुड़ती  , मचलती , तिलमिलाती, हाँपती    
अपने दिल की आतिश-ए-पिन्हाँ को भड़काती हुई
ख़ुद ब ख़ुद  रूठी हुई , बिफरी हुई , बिखरी हुई
शोर-ए-पैहम से दिल-ए-गेती को धड्काती हुई
पुल पे दरिया के दमादम कौन्द्ती,ललकारती
अपनी  इस  तूफ़ान  अंगेज़ी  पे  इतराती   हुई
पेश  करती  बीच  नद्दी  में  चरागाँ  का समाँ
साहिलों  पर  रेत  के  ज़र्रों  को चमकाती हुई
मुंह में घुसती है  सुरंगों के यकायक दौड़ कर
दनदनाती , चीखती , चिन्घाड़ती , गाती हुई
आगे आगे  जुस्तजू आमेज़  नज़रें  डालती
शब्  के हैबतनाक  नज्ज़ारों से घबराती हुई
एक मुजरिम की तरह सहमी हुई सिमटी हुई
एक  मुफ़लिस   की तरह सर्दी  में थर्राती हुई
तेज़ी-ए-रफ़्तार के सिक्के जमाती जा-ब-जा
दश्त-ओ-दर में जिंदगी की लहर दौड़ाती हुई
डाल  कर  गुज़रे ज़मानों पर अँधेरे का नक़ाब
इक  नया  मन्ज़र  नज़र के सामने लाती हुई
सफहा-ए दिल से मिटाती अह्द-ए-माज़ी के नक़ूश
हाल-ओ-मुस्तक़बिल के दिलकश ख़्वाब दिखलाती हुई
डालती  बेहिस  चटानों  पर  हिक़ारत  की  नज़र
कोह पर हँसती  फ़लक  को आँख दिखलाती हुई
दामन-ए-तारीकी-ए-शब  की  उड़ाती  धज्जियाँ
क़स्र-ए-ज़ुल्मत पर मुसलसल तीर बरसाती हुई
ज़द में कोई चीज़ आ जाए तो उसको पीस कर
इर्तेक़ा- ए- ज़िन्दगी  के  राज़   बतलाती   हुई
ज़ो,म  में  पेशानी-ए-सहरा  पे  ठोकर  मारती
फिर सुबक रफ्तारियों के नाज़ दिखलाती हुई
एक सरकश  फ़ौज की सूरत अलम खोले हुए
एक   तूफ़ानी   गरज   के   साथ   दर्राती   हुई
एक इक हरकत से अंदाज़-ए-बग़ावत आशकार
अज़्मत-ए-इंसानियत  के  ज़मज़मे  गाती  हुई
हर क़दम पर तोप की सी घन गरज के साथ साथ
गोलियों  की   सनसनाहट   की   सदा  आती  हुई
वो  हवा  में  सैकड़ों  जंगी  दहल  बजते  हुए
वो बिगुल की जाँफिज़ा आवाज़ लहराती हुई
अल्गरज़ बढती चली जाती है बे खौफ़-ओ-ख़तर
शायर-ए-आतिश नफ़स  का  खून  खौलाती  हुई

Saturday, November 05, 2011

मजाज़ की बेहतरीन नज्में(1) /"आवारा"

(उर्दू की तरक्की पसंद तहरीक(progressive movement ) से वाबस्ता अपने ज़माने के सब से मकबूल शायर असरार-उल-हक "मजाज़" को उर्दू का keats कहा जाता है-मजाज़ की नज्मों में बला का हुस्न,रूमान,इन्किलाबी एहसास और असर पाया जाता है-अलीगढ यूनिवर्सिटी का तराना मजाज़ का ही लिखा हुआ है ,जिस ने उनकी शोहरत को लाफ़ानी बना दिया है-"आवारा" मजाज़ की सब से मशहूर नज़्म है जिसके बारे में फ़िराक़ ने कहा था " ये नज़्म ऐसी है जैसे बारूद पर चिंगारी रक़स कर रही हो"-मजाज़ की पैदाइश के सौ साल पूरे होने पर हम उनको उन्हीं की नज्मों के ज़रिये खिराज पेश कर रहे हैं-)
आवारा 

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती  जागती  सड़कों  पे   आवारा  फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है कब तक  दर ब दर मारा फिरूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ


झिलमिलाते  क़ुमकुमों  की राह में ज़ंजीर  सी
रात  के  हाथों  में   दिन की मोहनी तस्वीर  सी
मेरे  सीने  पर  मगर  चलती  हुई  शमशीर सी
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ 


ये  रुपहली  छाँव ये आकाश  पर  तारों का जाल
जैसे  सूफी का तसव्वर जैसे आशिक का ख्याल
आह लेकिन कौन समझे कौन जाने जी का हाल
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ 


फिर वो टूटा इक सितारा फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने  किस  की  गोद  में  आई ये मोती की लड़ी
हूक  सी  सीने  में  उट्ठी  चोट  सी  दिल  पर पड़ी
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ

रात हँस हँस कर ये कहती है कि मैख़ाने में चल 
फिरकिसी शहनाज़-ए-लालारुख के काशाने में चल
ये  नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल  
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ

हर  तरफ  बिखरी  हुई  रंगीनियाँ , रानाइयाँ
हर  क़दम  पर  इशरतें लेती  हुई अंगड़ाइयाँ
बढ़   रही   हैं  गोद   फैलाए   हुए   रुस्वाइयाँ 
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ

रास्ते  में  रुक के दम  ले लूँ  मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊं मेरी फितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाए ये क़िस्मत नहीं 
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ


मुन्तजिर  है  एक  तूफ़ान-ए-बला  मेरे  लिए
अब  भी जाने  कितने  दरवाज़े हैं वा मेरे लिए 
पर  मुसीबत  है मेरा अहद-ए-वफ़ा  मेरे  लिए
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ


जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उनको  पा सकता हूँ  मैं  ये  आसरा  भी  छोड़ दूँ
हाँ  मुनासिब है कि ये ज़ंजीर-ए-हवा  भी तोड़ दूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ

इक महल कि आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला  का अमामा  जैसे बनिए कि किताब
जैसे  मुफलिस की जवानी  जैसे  बेवा  का शबाब
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ



दिल में इक शोला भड़क उट्ठा है आखिर क्या करूँ
मेरा  पैमाना  छलक  उट्ठा   है  आखिर  क्या  करूँ
ज़ख्म  सीने  का  महक  उट्ठा है आखिर क्या करूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ



जी  में  आता  है  ये  मुर्दा  चाँद  तारे  नोच  लूँ
इस  किनारे  नोच लूँ  और उस किनारे नोच लूँ
एक  दो  का  ज़िक्र  क्या  सारे के सारे  नोच लूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ



मुफलिसी  और  ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने
सैकड़ों  चंगेज़-ओ-नादिर   हैं  नज़र  के  सामने
सैकड़ों  सुल्तान-ओ-जाबिर  हैं नज़र के  सामने
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ


ले  के  इक  चंगेज़  के  हाथों  से  ख़ंजर तोड़  दूँ
ताज  पर  उसके  चमकता  है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई  तोड़े  या  न तोड़े  मैं  ही  बढ़  कर  तोड़  दूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ


बढ़ के इस इन्दर सभा का साज़-ओ-सामां फूँक दूँ
इसका  गुलशन  फूँक दूँ  उसका शबिस्ताँ  फूँक दूँ
तख़्त-ए-सुल्तां क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्तां फूँक दूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ



Tuesday, November 01, 2011

उर्दू शेर जो कहावत बन गए

(उर्दू शायरी का सब से ज्यादा इस्तेमाल गुफ्तगू के दौरान अपनी बात में असर पैदा करने के लिए होता है-अच्छे शेर याद करना और किसी मौके पर पेश करना आदमी की ज़हानत की निशानी समझा जाता है-यूं तो अच्छे शेरों का बर वक़्त इस्तेमाल हमेशा होता आया है लेकिन बहुत से शेर इतने ज्यादा मशहूर हो चुके की उनका इस्तेमाल कहावतों की तरह होता है-कभी पूरा शेर मुहावरा बन जाता है तो कभी शेर का सिर्फ एक मिस्रा(पंक्ति)-ऐसे हजारों  शेरों के खजाने से हम यहाँ चन्द मोती पेश कर रहे हैं-)

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बड़े  बे  आबरू  हो  कर  तेरे  कूचे  से  हम   निकले                       (ग़ालिब )

सितारों  से आगे जहाँ और  भी  हैं
अभी इश्क के इम्तेहाँ  और भी हैं                                               (इक़बाल )

मेहरबाँ हो के बुला  लो  मुझे  चाहे  जिस  वक़्त
मैं  गया  वक़्त नहीं  हूँ  कि फिर  आ  भी न  सकूँ                         (ग़ालिब )

ख़ुदी  को कर बलंद इतना की हर तकदीर से पहले
खुदा  बन्दे  से  खुद  पूछे  बता  तेरी  रज़ा क्या  है                        (इक़बाल)

आह  को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक                                     (ग़ालिब)

आफताब-ए-ताज़ा   पैदा   बत्न-ए-गेती  से हुआ 
आसमां टूटे  हुए  तारों  का मातम  कब  तलक                           (इक़बाल)


मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते  गए  और कारवां  बनता गया            (मजरूह सुल्तानपुरी)

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज  तुम  याद  बे  हिसाब  आये                                                (फ़ैज़) 


मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी  हैं  हम, वतन  है  हिन्दोस्ताँ  हमारा                                (इक़बाल)

गुलों  में  रंग  भरे  बाद-ए-नौ बहार  चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले                                 (फ़ैज़)

इक  शहन्शाह  ने  बनवा के हसीं ताजमहल 
हम गरीबों कि मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़                              (साहिर)


जिंदगी  ज़िन्दा दिली  का  नाम  है
मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं                                           (नासिख़)

बस कि दुश्वार है हर कम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना                                   (ग़ालिब)


फूल  की  पत्ती  से  कट सकता  है  हीरे  का जिगर
मर्द-ए-नादाँ पर कलाम-ए-नर्म-ओ-नाज़ुक बे असर                     (इक़बाल)

                                                                                                                          (क्रमशः )




Monday, October 31, 2011

कभी कभी /साहिर लुधियानवी


  (साहिर लुधियानवी की मशहूर नज़्म "कभी कभी" ,जिसके मरकजी ख़याल को यश चोपड़ा ने बड़ी ख़ूबसूरती के साथ कैनवास पर उतारा और अमिताभ  बच्चन ने अपनी अदाकारी और जादुई आवाज़ से नज़्म को फिल्म का सबसे यादगार हिस्सा बना दिया -फिल्म में अमिताभ ने जो नज़्म पढ़ी थी उसके बहुत से मिस्रों (lines) और लफ़्ज़ों को शायर ने तब्दील कर के आसान बना दिया था-हम यहाँ साहिर की कही हुई अस्ल(original ) नज़्म पेश कर रहे हैं-) 
कभी कभी


कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
 कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाओं में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी  सकती थी
ये  तीरगी जो  मेरी  ज़ीस्त  का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी

अजब न था कि मैं बेगाना-ए-अलम होकर 
तेरे  जमाल  की   रानाइयों   में  खो  रहता
तेरा  गुदाज़  बदन  तेरी  नीम  बाज़  आँखें
इन्हीं   हसीन  फसानों  में  मह्व  हो रहता


पुकारतीं  मुझे  जब तल्खियाँ ज़माने की
तेरे  लबों  से  हलावत  के  घूँट  पी  लेता
हयात चीखती फिरती बरहना सर और मैं
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता

मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
कि तू नहीं तेरा ग़म तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र  रही है कुछ इस तरहा जिंदगी जैसे
इसे  किसी  के सहारे की  आरज़ू  भी नहीं


ज़माने भर के दुखों को लगा चूका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रहगुज़ारों से
मुहीब  साए   मेरी  सम्त  बढ़ते  आते  हैं
हयात-ओ-मौत  के  पुरहौल खारज़ारों से


न कोई जादा न मन्ज़िल न रौशनी का सुराग़
भटक   रही   है   ख़लाओं   में   जिंदगी   मेरी
इन्हीं  ख़लाओं  में  रह  जाऊँगा कभी खो कर
मैं   जानता  हूँ  मेरी  हमनफ़स  मगर  यूँ  ही  
                                        कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है