(यूँ तो हर शायर कोशिश करता है कि कुछ न कुछ नया कहे मगर बहुत कम शायर ऐसे होते हैं जिनकी कलम से निकले हुए शह-पारे अदब का धारा मोड़ देते हैं-उर्दू के अज़ीम शायर फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़"ऐसे ही एक शायर हैं जिन्हों ने उर्दू शायरी में हुस्न-ओ-इश्क के पैमाने ही बदल डाले और आने वाली कई नस्लों को मुतास्सिर किया-फैज़ की मशहूर तरीन नज़्म "मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग " ने शायरी में मुहब्बत को एक नए अंदाज़ से देखने की रवायत डाली-फ़ैज़ के इस नए फलसफा-ए-इश्क़ की झलक न सिर्फ उनके दौर के शायरों में बल्कि आज तक देखने को मिलती है-फैज़ की जन्म शताब्दी(2011 ) पर हम उन्हें इसी नज़्म के साथ खिराज (श्रद्धांजलि)पेश कर रहे हैं-)
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दह्र का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है
तू जो मिल जाए तो तकदीर निगूं हो जाए
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख्वाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए खून में नहलाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए खून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मुश्किल अल्फाज़----दरख्शां ...चमकदार , ग़म-ए-दह्र ...संसार के दुःख ,सबात ...टिके रहना ,निगूं ...झुका हुआ ,वस्ल ...मिलन ,तारीक ...अंधकारमय , अतलस-ओ-कमख्वाब ...मुलायम कपड़ों की क़िस्में ,अमराज़ ...रोगों,