(यूँ तो फ़िल्मी गानों का उर्दू के बगैर तसव्वुर नहीं किया जा सकता ,और सिर्फ उर्दू शायरों ने ही नहीं बल्कि खालिस हिंदी के शायरों ने भी फ़िल्मी गानों में उर्दू अल्फाज़ का ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है, लेकिन हम यहाँ उन गानों का ज़िक्र नहीं कर रहे हैं जो खासतौर पर फिल्मों के लिए ही लिखे गए-यहाँ ज़ेर-ए-बहस वो गाने हैं जो क्लास्सिकल उर्दू शायरी से मुतास्सिर हो कर या किसी शेर को जानबूझ कर या अनजाने में इस्तेमाल करते हुए या खुले आम चोरी करके लिखे गए-हम सिर्फ मिसालें पेश कर रहे हैं -इन मिसालों को पढने के बाद आखरी फैलसा आप खुद कर सकते हैं-)
1 -- दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन
बैठे रहें तसव्वर -ए -जानाँ किये हुए
(फिल्म-मौसम, गीतकार--गुलज़ार)
(फिल्म-मौसम, गीतकार--गुलज़ार)
ये शेर ग़ालिब के इस शेर का अक्स है......
जी ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन
बैठे रहें तसव्वर -ए -जानाँ किये हुए
गुलज़ार ने फिल्म में कहीं भी ग़ालिब को क्रेडिट नहीं दिया है-
२-- तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है
(फिल्म----? ,गीतकार--मजरूह सुल्तानपुरी)
ये मिस्रा फैज़ की मशहूर तरीन नज़्म "मुझ से पहले सी मुहब्बत न मांग" से लिया गया है(ये नज़्म इसी ब्लॉग पर मौजूद है)
3 --मैं ने रखा है मोहब्बत अपने अफ़साने का नाम
तुम भी कुछअच्छा सा रख लो अपने दीवाने का नाम
(फिल्म----? ,गीतकार--आनंद बख्शी)
ये गाना फैज़ के इस बेहतरीन शेर से मुतास्सिर हो कर लिखा गया है.......
हम से कहते हैं चमन वाले गरीबान- ए -चमन
तुम कोई अच्छा सा रख लो अपने वीराने का नाम
आनंद बख्शी ने इस शेर के साथ क्या सुलूक किया है ये बयान करने की ज़रुरत नहीं है-
4 --ये तेरी सादगी, ये तेरा बांकपन ...जान-ए-बहार जान-ए-चमन....
तिरछी नज़रों से न देखो आशिक़-ए-दिलगीर को
कैसे तीर-अंदाज़ हो सीधा तो कर लो तीर को
(फिल्म----? ,गीतकार--मजरूह सुल्तानपुरी)
अंतरे का शेर लखनऊ के पुराने शायर वज़ीर लखनवी का है-मजरूह साहब ने इसे अपना बना कर गाने में पिरो दिया है-इस हरकत को क्या कहेंगे ये आप खुद फैसला कीजिये-
5 --ऐ मेरी शाह-ए-खूबाँ ऐ मेरी जान-ए-जानानाँ
तुम मेरे पास होती हो कोई दूसरा नहीं होता
(फिल्म----? ,गीतकार--हसरत जयपुरी)
ये शेर उस्ताद शायर मोमिन के इस इन्तेहाई मशहूर शेर की ऐसी तैसी करके लिखा गया है..........
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
मोमिन का ये शेर ग़ालिब को इतना पसंद था कि उन्होंने इस शेर के बदले अपना पूरा दीवान मोमिन को देने की बात कही थी-ग़ालिब को अंदाज़ा नहीं था कि हिंदी फिल्मों में इस शेर की कैसी मिटटी पलीद होने वाली है वरना वो अपना बयान वापस ले लेते-
हसरत जय पुरी साहब ने न सिर्फ इतने नाज़ुक शेर का खून किया है बल्कि जो गाना लिखा है वो अपने अर्थ के लिहाज़ से बहुत हास्यास्पद है-पहला मिस्रा बह्र(meter) से बिलकुल ख़ारिज है जिसे वज़न में बैठाने के लिए रफ़ी साहब को " शाह-ए-खूबाँ" की जगह " शाह-ए-खुबाँ " और "जान-ए-जानानाँ "की जगह "जान-ए-जनाना " गाना पड़ा-इसके अलावा प्रेमिका को "शाह-ए-खूबाँ "(सुन्दरों के राजा)" कहना उसके gender को ही बदल देता है-
6 --जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारो
मैं नहीं कहता किताबों में लिखा है यारो
(फिल्म-लावारिस ,गीतकार--अंजान)
ये शेर उर्दू के मशहूर शायर कृष्ण बिहारी "नूर" की एक ग़ज़ल का मतला(पहला शेर जिसके दोनों मिसरों में काफ़िया होता है) है- फिल्म में कहीं भी कृष्ण बिहारी "नूर" को क्रेडिट नहीं दिया गया था-
7 --तुमको देखा तो ये ख़याल आया
जिंदगी धूप तुम घना साया
(फिल्म--------?,गीतकार--जावेद अख्तर)
ये शेर फिराक़ गोरखपुरी के इस शेर का चर्बा (सार) है-
ये जिंदगी के कड़े कोस याद आता है
तेरी निगाह-इ-करम का घना-घना साया
8--तूने हर रात मुहब्बत की क़सम खाई है
बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है
(फिल्म-गंगा की सौगंध ,गीतकार----?)
कभी हम से कभी गैरों से शिनासाई है
बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है
(क्रमशः)
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