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Tuesday, January 31, 2012

उर्दू शायरी के फ़िल्मी चोर



(यूँ तो फ़िल्मी गानों का उर्दू के बगैर तसव्वुर नहीं किया जा सकता ,और सिर्फ उर्दू शायरों ने ही नहीं बल्कि खालिस हिंदी के शायरों ने भी फ़िल्मी गानों में उर्दू अल्फाज़ का ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है, लेकिन हम यहाँ उन गानों का ज़िक्र नहीं कर रहे  हैं जो खासतौर पर फिल्मों के लिए ही लिखे गए-यहाँ ज़ेर-ए-बहस वो गाने हैं जो क्लास्सिकल उर्दू शायरी से मुतास्सिर हो कर या किसी शेर को जानबूझ कर या अनजाने में इस्तेमाल करते हुए या खुले आम चोरी करके लिखे गए-हम सिर्फ मिसालें पेश कर रहे हैं -इन मिसालों को पढने के बाद आखरी फैलसा आप खुद कर सकते हैं-)

1 --  दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन
        बैठे  रहें  तसव्वर -ए -जानाँ  किये  हुए                         
                                                    (फिल्म-मौसम, गीतकार--गुलज़ार)


ये शेर ग़ालिब के इस शेर का अक्स है......
      
       जी ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन
        बैठे  रहें  तसव्वर -ए -जानाँ  किये  हुए


गुलज़ार ने फिल्म में कहीं भी ग़ालिब को क्रेडिट नहीं दिया है-


२-- तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है                   
                                     (फिल्म----? ,गीतकार--मजरूह सुल्तानपुरी)


ये मिस्रा फैज़ की मशहूर तरीन नज़्म "मुझ से पहले सी मुहब्बत न मांग" से लिया गया है(ये नज़्म इसी ब्लॉग पर मौजूद है)


3 --मैं  ने  रखा  है  मोहब्बत  अपने  अफ़साने  का  नाम
      तुम भी कुछअच्छा सा रख लो अपने दीवाने का नाम    
                                               (फिल्म----? ,गीतकार--आनंद बख्शी)


ये गाना फैज़ के इस बेहतरीन शेर से मुतास्सिर हो कर लिखा गया है.......
      
        हम  से  कहते  हैं  चमन  वाले  गरीबान- ए -चमन
        तुम कोई अच्छा सा रख लो अपने  वीराने का नाम


आनंद बख्शी ने इस शेर के साथ क्या सुलूक किया है ये बयान करने की ज़रुरत नहीं है-


4 --ये तेरी सादगी, ये तेरा बांकपन ...जान-ए-बहार जान-ए-चमन....
      तिरछी नज़रों से न देखो आशिक़-ए-दिलगीर को
      कैसे  तीर-अंदाज़  हो  सीधा  तो  कर  लो तीर को               
                                         (फिल्म----? ,गीतकार--मजरूह सुल्तानपुरी)


अंतरे का शेर लखनऊ के पुराने शायर वज़ीर लखनवी का है-मजरूह साहब ने इसे अपना बना कर गाने में पिरो दिया है-इस हरकत को क्या कहेंगे ये आप खुद फैसला कीजिये-


5 --ऐ मेरी शाह-ए-खूबाँ ऐ मेरी जान-ए-जानानाँ     
     तुम मेरे  पास होती हो कोई दूसरा नहीं होता                    
                                         (फिल्म----? ,गीतकार--हसरत जयपुरी)
    
ये शेर उस्ताद शायर मोमिन के इस इन्तेहाई मशहूर शेर की ऐसी तैसी करके लिखा गया है..........
    
                         तुम मेरे पास होते हो गोया
                         जब  कोई दूसरा नहीं होता


मोमिन का ये शेर ग़ालिब को इतना पसंद था कि उन्होंने इस शेर के बदले अपना पूरा दीवान मोमिन को देने की बात कही थी-ग़ालिब को अंदाज़ा नहीं था कि हिंदी फिल्मों में इस शेर की कैसी मिटटी पलीद होने वाली है वरना वो अपना बयान वापस ले लेते-
हसरत जय पुरी साहब ने न सिर्फ इतने नाज़ुक शेर का खून किया है बल्कि जो गाना लिखा है वो अपने अर्थ के लिहाज़ से बहुत हास्यास्पद है-पहला मिस्रा बह्र(meter) से बिलकुल ख़ारिज है जिसे वज़न में बैठाने के लिए रफ़ी साहब को " शाह-ए-खूबाँ" की जगह " शाह-ए-खुबाँ " और "जान-ए-जानानाँ "की जगह "जान-ए-जनाना " गाना पड़ा-इसके अलावा प्रेमिका को "शाह-ए-खूबाँ "(सुन्दरों के राजा)" कहना उसके gender  को ही बदल देता है-


6 --जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारो
      मैं नहीं कहता किताबों  में  लिखा है यारो                 
                                              (फिल्म-लावारिस  ,गीतकार--अंजान)

ये शेर उर्दू के मशहूर शायर कृष्ण बिहारी "नूर" की एक ग़ज़ल का मतला(पहला शेर जिसके दोनों मिसरों में काफ़िया होता है) है- फिल्म में कहीं भी  कृष्ण बिहारी "नूर" को क्रेडिट नहीं दिया गया था-


7 --तुमको देखा तो ये ख़याल आया
     जिंदगी  धूप   तुम  घना  साया
                                       (फिल्म--------?,गीतकार--जावेद अख्तर)


ये शेर फिराक़ गोरखपुरी के इस शेर का चर्बा (सार) है-
             
              ये  जिंदगी  के  कड़े  कोस  याद  आता है
              तेरी निगाह-इ-करम का घना-घना साया 


8--तूने हर रात मुहब्बत की क़सम खाई है
     बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है
                                            (फिल्म-गंगा की सौगंध ,गीतकार----?)

    ये मुखड़ा इकबाल की मशहूर नज़्म शिकवा के इस शेर का चर्बा है--


      कभी हम से कभी गैरों से शिनासाई है
      बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है                                                                                                                        


                                                                                  (क्रमशः)       
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Sunday, January 22, 2012

पुकारने के लिए इक खुदा ज़रूरी है/शुजा खावर की याद में



(21 जनवरी 2012 की सुबह उर्दू शायरी की एक  बहुत दमदार और अनोखी  आवाज़ हमेशा के लिए खामोश हो गई जिसे  दुनिया शुजा खावर के नाम से जानती है-शुजाउद्दीन साजिद उर्फ़ शुजा खावर आई. पी .एस थे और दिल्ली में डी. सी .पी भी रहे मगर उनका शायराना बल्कि क़ल्न्दराना मिज़ाज पुलिस की नौकरी से किसी तरह मेल नहीं खता था लिहाज़ा उनहोंने वक़्त से पहले रिटायरमेंट ले लिया-कुछ दिनों तक एक सियासी पार्टी भी ज्वाइन की मगर जल्द ही वहां से भी रुखसती ले कर पूरा वक़्त शायरी के लिए वक्फ कर दिया-
शुजा खावर आम तौर पर ग़ज़ल कहते थे मगर उनके मुतफ़र्रिक़(फुटकर)शेर बहुत ज्यादा मशहूर हुए-हम उर्दू पोएट्री ऑनलाइन की जानिब से मरहूम शुजा खावर को ख़िराज-ए-अकीदत पेश करते हुए उनके कलाम से चन्द जवाहर यहाँ पेश कर रहे हैं-अगर आप के ज़ेहन में भी शुजा खावर के कुछ शेर गूँज  रहे हों तो इस फेहरिस्त में इज़ाफ़ा कर सकते हैं--- आमिर रियाज़ )

शुजा खावर का कलाम

मुतफ़र्रिक़(फुटकर)शेर

इस एतबार से बे-इन्तहा ज़रूरी है
पुकारने के लिए इक खुदा ज़रूरी है


शुजा मौत से पहले ज़रूर जी लेना
ये काम भूल न जाना बड़ा ज़रूरी है
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ज़िन्दगी भर ज़िन्दा  रहने  की  यही  तरकीब  है 
उस तरफ जाना नहीं हरगिज़,जिधर की सोचना 
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आप इधर आये उधर दीन और ईमान गए 
ईद का  चाँद  नज़र आया तो रमज़ान गए
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पड़े रहें तो क़लंदर उठें तो फ़ित्ना हैं
 हमें जगाया तो नींदें हराम कर देंगे 
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जिस्मानी  त,अल्लुक़  पे  ये शर्मिंदगी कैसी
आपस में बदन कुछ भी करें इस से हमें क्या

लश्कर  को  बचाएंगी  ये  दो-चार  सफ़ें  क्या
और उन में भी हर शख्स ये कहता है हमें क्या
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क्या  किया जाए  यही  अल्लाह  को  मंज़ूर  है
दिल्ली आकर भी ये लगता है कि दिल्ली दूर है 

ग़ज़लें 

दूसरी  बातों   में  हमको  हो  गया  घाटा  बहुत 
वरना फ़िक्र-ए-शेर को दो वक़्त  का आटा बहुत 

आरज़ू  का  शोर बरपा  हिज्र  की  रातों में था
वस्ल की शब् तो हुआ जाता है सन्नाटा बहुत

दिल की बातें दूसरों से मत कहो कट जाओगे
आजकल  इज़हार  के  धंधे  में है घाटा बहुत

कायनात और ज़ात में कुछ चल रही है आजकल
जब  से अन्दर शोर  है बाहर  है सन्नाटा बहुत

मौत की आज़ादियाँ भी ऐसी कुछ दिलकश न थीं
फिर  भी हमने  ज़िन्दगी  की क़ैद को काटा बहुत 

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पहुंचा  हुज़ूर-ए-शाह  हर  इक  रंग का फ़क़ीर
पहुंचा  नहीं  जो, था  वही  पहुंचा  हुआ फ़क़ीर

वो  वक़्त  का  गुलाम  तो  ये नाम का फ़क़ीर
क्या बादशाह-ए-वक़्त मियां और क्या फ़क़ीर

मुन्दर्जा-ज़ेल  लफ़्ज़ों  के  मानी  तलाश कर
दरवेश, मस्त, सूफी, क़लंदर, गदा, फ़क़ीर

हम  कुछ  नहीं थे शहर में इसका मलाल है
इक शख्स शहरयार था और एक था फ़क़ीर

क्या  दौर आ गया है  कि रोज़ी की फ़िक्र में
हाकिम बना हुआ है इक अच्छा भला फ़क़ीर

इस कशमकश में कुछ नहीं बन पाओगे शुजा
या  शहरयार  बन  के  रहो  और  या  फ़क़ीर  
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Monday, January 16, 2012

चकले/साहिर लुधियानवी


(साहिर लुधियानवी की ये मशहूर नज़्म "चकले" हाल ही में उस वक़्त दोबारा चर्चा में आई जब  सुप्रीम कोर्ट में सेक्स वर्कर्स से मुताल्लिक़ एक अहम् फैसले में  जस्टिस काटजू ने इसकी चन्द लाईनों को क्वोट किया-तकरीबन पचास साल पहले गुरु दत्त ने क्लासिकल फिल्म "प्यासा" में इस नज़्म का खूबसूरत इस्तेमाल किया था-मुहम्मद रफ़ी की गई हुई फिल्म प्यासा की नज़्म में अस्ल नज़्म का एक मिस्रा (पंक्ति ) "सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं" बदल कर "जिन्हें नाज़  है हिंद पर वो कहाँ हैं" कर दिया गया था जो अस्ल मिसरे का लगभग तर्जुमा है-
हालांकि आज की सेक्स वर्कर पुराने ज़माने की तवायफ़ की तरह नितांत मजबूर और निरीह नहीं है, और ये एक कड़वी सच्चाई है कि मौजूदा दौर में सेक्स वर्कर्स की बड़ी तादाद किसी दबाव के बगैर सिर्फ पैसा कमाने या विलासपूर्ण जिंदगी गुज़ारने के लिए ख़ुफ़िया तरीके से अपना कारोबार चलाती हैं, मगर ऐसी बदक़िस्मत औरतों की भी कमी नहीं है जिन्हें उमराव जान जैसी त्रासदी से गुज़र कर इस पेशे को अपनाना पड़ा-बहर हाल आज की        सेक्स वर्कर्स हों या पुराने ज़माने की तवायफें दोनों मर्दों की बनाई हुई दुनिया की शिकार हैं चाहे ख़ुशी से हों या मजबूरी से-इस लिहाज़ से  "चकले" जैसी नज्मों की प्रासंगिकता हमेश बनी रहे गी- )

चकले  


ये  कूचे  ये  नीलामघर  दिलक़शी  के 
ये   लुटते   हुए   कारवाँ   ज़िंदगी  के
कहां  हैं  कहां  हैं  मुहाफ़िज़  ख़ुदी  के
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं|


ये पुर-पेच  गलियां ये  बेख़्वाब बाज़ार
ये गुमनाम राही ये सिक्कों की झंकार
ये  इस्मत  के सौदे ये सौदों पे तकरार
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं|


तअफ्फुन  से पुर नीम-रौशन ये गलियां
ये  मसली  हुई अध-खिली ज़र्द कलियां
ये  बिकती   हुई   खोखली   रंग रलियां
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं|


वो  उजले  दरीचों  में  पायल  की छनछन
तऩफ्फ़ुस की उलझन पे तबले की धनधन
ये  बे रूह  कमरों  में  खांसी  की  ठन ठन 
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं|


ये  गूंजे  हुए  क़हक़हे   रास्तों   पर
ये चारों तरफ भीड़ सी खिड़कियों पर
ये  आवाज़े  खिंचते  हुए आंचलों पर
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं|


ये  फूलों  के गजरे ये पीकों के छींटे
ये  बेबाक़ नज़रें  ये गुस्ताख़ फ़िक़रे
ये ढलके बदन और ये मदक़ूक़ चेहरे
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं|


ये भूखी निगाहें  हसीनों की जानिब
ये बढ़ते हुए हाथ  सीनों की जानिब
लपकते हुए पांव  ज़ीनों की जानिब
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं|


यहां  पीर  भी आ  चुके हैं जवां भी
तनूमंद  बेटे  भी  अब्बा  मियां भी
ये बीवी भी है और बहन भी है माँ भी
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं|


मदद  चाहती  है  ये  हव्वा की  बेटी
यशोदा  की हम-जिन्स राधा की बेटी
पयम्बर की उम्मत  ज़ुलेख़ा की बेटी
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं|


ज़रा  मुल्क़  के  रहबरों  को  बुलाओ
ये  कूचे  ये गलियां ये मंज़र दिखाओ
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ को लाओ
सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं| 

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मुश्किल अल्फाज़---- पुर-पेच  ...टेढ़ी मेढ़ी  ,  तअफ्फुन ...दुर्गन्ध , पुर   ...भरी हुई  , नीम-रौशन  ...अर्ध प्रकाशित , तऩफ्फ़ुस  ...साँसें  , आवाज़े   ...कटाक्ष  ,  मदक़ूक़ ...पीले  , तनूमंद  ...तंदुरुस्त , हम-जिन्स   ...लैंगिक  रूप से समान 

Friday, January 06, 2012

सर्दियों के शेर


(सर्दियों का मंज़र-नामा )


शाम भी थी धुआं -धुआं हुस्न भी था उदास  उदास
दिल  को  कई  कहानियां  याद सी आ  के रह  गईं             (फ़िराक़)
                                                                               
नसीब   सोहबत-ए-याराँ   नहीं   तो  क्या  कीजे
ये रक्स-ए-साया-ए-सर्व-ओ-चिनार  का मौसम                  (फ़ैज़ )

ये ठिठुरी  हुई  लम्बी  रातें  कुछ पूछती  हैं
ये खामशी-ए-आवाज़-नुमा  कुछ कहती है
जब  रात  को  तारे बारी - बारी  जागते  हैं
कई  डूबे  हुए तारों की निदा कुछ कहती है           (नासिर काज़मी )




बर्फ़बारी  में  तेरे क़ुर्ब की इक रात मिले
मेरे  ख़ुरशीद बदन धूप की सौग़ात मिले                         (-------- )


ये सर्द  रात ये  तन्हाईयाँ ये नींद का बोझ
हम अपने  शहर में होते तो घर  गए  होते                       (-------- )

बर्फ  सी  उजली  पोशाक  पहने  हुए  पेड़  जैसे  दुआओं  में  मसरूफ हैं 
वादियाँ पाक मरियम का आँचल हुईं आओ सजदा करें सर झुकाएं कहीं 
                                                                                (बशीर बद्र )

मत  कहो आकाश पर कोहरा घना  है
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है                            (दुष्यंत कुमार )

नए साल ने टांक दिए हैं फूल फ़ज़ा के  आँचल  में 
फुटपाथों   पर ठिठुर  रही है रात पुराने  कम्बल में          (आमिर रियाज़ )

Sunday, January 01, 2012

नए साल की दो तस्वीरें/आमिर रियाज़



(नए साल की आमद पर ये चन्द शेर दरअस्ल नतीजा हैं एक ऐसे मंज़र के जिसने मुझे अन्दर तक झिंझोड़ के रख दिया -साल शुरू होने के सिर्फ दो दिन पहले हज़रतगंज के चमकते बाज़ारों के किनारे फुटपाथ पर एक रिक्शे वाला दमे के हमले से अपनी बेकाबू साँसों को मामूल पर लाने की नाकाम कोशिश कर रहा था , मगर लोग इस मंज़र से बेख़बर नज़ारों का लुत्फ़ ले रहे थे -हम ने उसके साथ क्या भलाई या बुराई की इसका ज़िक्र करने की ज़रुरत नहीं है, मगर ये एक कड़वी सच्चाई है कि नए साल के नाम पर एक दिन में करोड़ों रुपये हवा में उड़ा देने वाले हम लोग ऐसे करोड़ों लोगों के दर्द से बेखबर हैं जिनके पास ज़िन्दगी बचाने के लिए चन्द सौ रुपये भी नहीं होते-) 

कितनी आवाजें डूबी हैं....


नए साल ने टांक दिए हैं फूल फ़ज़ा के आँचल में
फुटपाथों  पर  ठिठुर रही है रात पुराने कम्बल में

मय-ए-शबाना की  सरमस्ती ऐवानों में छाई है
प्यासी  रूहें  भटक  रही  हैं इंसानों के जंगल में

यहीं  एक  बे नूर सी बस्ती भूख ओढ़ कर सोई है 
जहाँ सितारे रक्स कुनाँ हैं पांच सितारा होटल में 

बरस बरस से तरसी आँखें सोच रही हैं अबके बरस
अपने लिए भी उतरे शाएद कोई मसीहा बादल में 

ख़ामोशी का शोर बहुत है किस की  बात सुने कोई 
कितनी  आवाजें  डूबी  हैं  ख़ामोशी  के दलदल में

कहीं कहीं  तो वक़्त कई सदियों तक ठहरा रहता है
और कहीं ये वक़्त बदल देता है सदियाँ इक पल में 

                   गए साल का वही सिलसिला नया साल दोहराता है 
                  किसी के अश्कों की कीमत पर कोई जश्न मनाता है