(नए साल की आमद पर ये चन्द शेर दरअस्ल नतीजा हैं एक ऐसे मंज़र के जिसने मुझे अन्दर तक झिंझोड़ के रख दिया -साल शुरू होने के सिर्फ दो दिन पहले हज़रतगंज के चमकते बाज़ारों के किनारे फुटपाथ पर एक रिक्शे वाला दमे के हमले से अपनी बेकाबू साँसों को मामूल पर लाने की नाकाम कोशिश कर रहा था , मगर लोग इस मंज़र से बेख़बर नज़ारों का लुत्फ़ ले रहे थे -हम ने उसके साथ क्या भलाई या बुराई की इसका ज़िक्र करने की ज़रुरत नहीं है, मगर ये एक कड़वी सच्चाई है कि नए साल के नाम पर एक दिन में करोड़ों रुपये हवा में उड़ा देने वाले हम लोग ऐसे करोड़ों लोगों के दर्द से बेखबर हैं जिनके पास ज़िन्दगी बचाने के लिए चन्द सौ रुपये भी नहीं होते-)
कितनी आवाजें डूबी हैं....
नए साल ने टांक दिए हैं फूल फ़ज़ा के आँचल में
फुटपाथों पर ठिठुर रही है रात पुराने कम्बल में
मय-ए-शबाना की सरमस्ती ऐवानों में छाई है
प्यासी रूहें भटक रही हैं इंसानों के जंगल में
यहीं एक बे नूर सी बस्ती भूख ओढ़ कर सोई है
जहाँ सितारे रक्स कुनाँ हैं पांच सितारा होटल में
बरस बरस से तरसी आँखें सोच रही हैं अबके बरस
अपने लिए भी उतरे शाएद कोई मसीहा बादल में
ख़ामोशी का शोर बहुत है किस की बात सुने कोई
कितनी आवाजें डूबी हैं ख़ामोशी के दलदल में
कहीं कहीं तो वक़्त कई सदियों तक ठहरा रहता है
और कहीं ये वक़्त बदल देता है सदियाँ इक पल में
गए साल का वही सिलसिला नया साल दोहराता है
किसी के अश्कों की कीमत पर कोई जश्न मनाता है
No comments:
Post a Comment