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Friday, February 17, 2012

अलविदा शहरयार

(जदीद उर्दू ग़ज़ल की आबरू शहरयार भी हमें छोड़ कर मुल्क-ए-अदम को रवाना हो गए-अभी हम शुजा खावर के जाने का सोग भी पूरी तरह मना नहीं पाए थे कि ये सान्हा पेश आ गया-उर्दू पोएट्री ऑन लाइन की तरफ से हम मरहूम को खिराज-ए-अकीदत पेश करते हैं -
शहरयार उर्दू के शायर थे मगर उनका वजूद सारे मुल्क के लिए एक क़ीमती विरासत का दर्जा रखता है-ज्ञानपीठ अवार्ड याफ़्ता शायर प्रोफ़ेसर शहरयार जदीद उर्दू ग़ज़ल के संस्थापकों में थे-उनकी ग़ज़लें खवास से ले कर अवाम तक बराबर से मकबूल रहीं  और अपनी जिंदगी में ही उन्हों ने lagend का दर्जा हासिल कर लिया था -हिन्दोस्तान की कई नस्लें उनकी ग़ज़लें सुन सुन कर परवान चढ़ीं-भला उमराव जान और गमन की सदाबहार ग़ज़लों से कौन वाकिफ़ न होगा-अगर हिंदी फिल्मों की बात करें तो साहिर के बाद शहरयार ही ऐसे शायर थे जिन्हों ने फ़िल्मी गानों में भी अदब को ज़िंदा रखा-उर्दू अदब और फिल्म industry  हमेशा उनकी ग़ज़लों पर नाज़ करते रहेंगे-)

शहरयार की चन्द तखलीकात(रचनाएं)

ग़ज़ल 

जिंदगी  जैसी  तवक्को  थी  नहीं कुछ कम है
हर  घड़ी  होता  है  एहसास  कहीं  कुछ कम है
                          
                           घर  की तामीर तसव्वर  ही  में  हो  सकती  है
                           अपने नक़शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है


बिछड़े  लोगों  से  मुलाक़ात  कभी  फिर  होगी
दिल में उम्मीद तो ज्यादा है यकीं कुछ कम है
                         
                         अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
                         कहीं  कुछ  चीज़  ज़ियादा  है कहीं कुछ कम है


आज  भी  है  तेरी  दूरी  ही  उदासी  का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है  


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नज़्म 


मेरे लिए रात ने


आज फ़राहम किया एक नया मरहला


नींदों ने ख़ाली किया


अश्कों ने फिर भर दिया


कासा मेरी  आँख  का


और कहा कान में


मैं ने हर इक जुर्म से 


तुमको बरी कर दिया


मैं ने सदा के लिए


तुमको रिहा कर दिया


जाओ  जिधर चाहो तुम


जागो की सो जाओ तुम


ख़्वाब का दर बंद है 


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मशहूर शेर




तू कहाँ है तुझसे इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
कब  से पलकों  पर  उठाए फिर रहा हूँ रात को


मेरे हिस्से की ज़मीं बंजर थी मैं वाकिफ न था
बे  सबब  इलज़ाम  मैं  देता  रहा  बरसात  को



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सभी को ग़म है समंदर के ख़ुश्क होने का 
कि  खेल  ख़त्म  हुआ कश्तियाँ डुबोने का


गए तो लोग थे दीवार-ए-क़हक़हा की तरफ
मगर  ये  शोर  मुसलसल  है कैसा रोने का 



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उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए  
हम  लोग  ज़रा  देर  से  बाज़ार  में  आए 


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ऐ   खुदा   मैं   तेरे   होने   से   बहुत   महफूज़   था
मुझको तुझ से मुन्हरिफ़ तू ही बता किसने किया
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1 comment:

  1. bas itnaa hotaa mere dono haath bhar jaate
    tere khazaane mein bataa koyee kamee hotee ?

    -SHAHARYAAR...

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