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Monday, October 31, 2011

कभी कभी /साहिर लुधियानवी


  (साहिर लुधियानवी की मशहूर नज़्म "कभी कभी" ,जिसके मरकजी ख़याल को यश चोपड़ा ने बड़ी ख़ूबसूरती के साथ कैनवास पर उतारा और अमिताभ  बच्चन ने अपनी अदाकारी और जादुई आवाज़ से नज़्म को फिल्म का सबसे यादगार हिस्सा बना दिया -फिल्म में अमिताभ ने जो नज़्म पढ़ी थी उसके बहुत से मिस्रों (lines) और लफ़्ज़ों को शायर ने तब्दील कर के आसान बना दिया था-हम यहाँ साहिर की कही हुई अस्ल(original ) नज़्म पेश कर रहे हैं-) 
कभी कभी


कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
 कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाओं में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी  सकती थी
ये  तीरगी जो  मेरी  ज़ीस्त  का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी

अजब न था कि मैं बेगाना-ए-अलम होकर 
तेरे  जमाल  की   रानाइयों   में  खो  रहता
तेरा  गुदाज़  बदन  तेरी  नीम  बाज़  आँखें
इन्हीं   हसीन  फसानों  में  मह्व  हो रहता


पुकारतीं  मुझे  जब तल्खियाँ ज़माने की
तेरे  लबों  से  हलावत  के  घूँट  पी  लेता
हयात चीखती फिरती बरहना सर और मैं
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता

मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
कि तू नहीं तेरा ग़म तेरी जुस्तजू भी नहीं
गुज़र  रही है कुछ इस तरहा जिंदगी जैसे
इसे  किसी  के सहारे की  आरज़ू  भी नहीं


ज़माने भर के दुखों को लगा चूका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रहगुज़ारों से
मुहीब  साए   मेरी  सम्त  बढ़ते  आते  हैं
हयात-ओ-मौत  के  पुरहौल खारज़ारों से


न कोई जादा न मन्ज़िल न रौशनी का सुराग़
भटक   रही   है   ख़लाओं   में   जिंदगी   मेरी
इन्हीं  ख़लाओं  में  रह  जाऊँगा कभी खो कर
मैं   जानता  हूँ  मेरी  हमनफ़स  मगर  यूँ  ही  
                                        कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

Sunday, October 30, 2011

तराना / डॉ इकबाल

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा 
हम बुलबुले है इसकी ये गुलसितां  हमारा

ग़ुरबत मे हो अगर हम रहता है दिल वतन मे
समझो वही हमे भी दिल है जहाँ हमारा 
परबत वो सब से ऊंचा हमसाया आसमाँ का
वो संतरी  हमारा वो पासबाँ हमारा 
गोदी मे खेलती है इसकी हजारो नदियाँ 
गुलशन है जिनके दम से रश्क-ए-जनां हमारा 
ऐ आब ए रूद ए गंगा वो दिन है याद तुझको
उतरा   तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा 
मज़हब   नही सिखाता आपस मे बैर रखना
हिंदी   है हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा 
युनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गये जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नामो-निशाँ हमारा 
कुछ बात है की हस्ती मिटती नही हमारी
सदियों  रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़मां हमारा 
इक़्बाल कोइ महरम  अपना नहीं  जहाँ मे
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ  हमारा 

Saturday, October 29, 2011

उर्दू शायरी के आशिकों से चन्द बातें

उर्दू शायरी अपने अन्दर एक खास कशिश रखती है-यही वजह है हिंदी और दूसरी ज़बान बोलने वाले लोग भी बेसाख्ता इसकी तरफ आकर्षित होते हैं-उर्दू शायरी का इस्तेमाल आम आदमी से ले कर मीडिया, संसद और अदालतों तक पूरे जोर शोर से होता है-जिंदगी का शायद ही कोई पहलू ऐसा हो जो उर्दू शायरी का मौजू न बना हो-दूसरे लफ़्ज़ों में कहें तो उर्दू के शेर इंसानी जिंदगी के हर पहलू की तर्जुमानी करते हैं-उर्दू शायरी से मुहब्बत करने वाला हर शख्स चाहता है के उसके पास बेहतरीन शेरों का खज़ाना हो जिसे वह मुख्तलिफ मौकों पर लुटा कर अपनी ज़बान में असर पैदा कर सके-
उर्दू शायरी के लिए लोगों की यह दीवानगी उन्हें ऐसे तमाम ज़राय की तरफ ले जाती है जहाँ से शायरी के सोते फूटते हैं-मगर अक्सर उर्दू स्क्रिप्ट न जानने के सबब लोगों तक सिर्फ वह शायरी पहुँचती है जो मुशायरों,टी वी ,रेडियो वगैरा पर पढ़ी जाती है-ज़ाहिर है कि यह उर्दू शायरी के समंदर का एक छोटा सा हिस्सा है-और सब से बड़ी बात यह है कि audio visual मीडिया से पेश की जाने वाली शायरी कुछ शायरों को छोड़ कर अक्सर दूसरे या तीसरे दर्जे की शायरी होती है जिसे सुनने वाला उर्दू की अस्ल शायरी समझ लेता है-मगर जिन लोगों ने उर्दू स्क्रिप्ट सीख कर शायरी को बराह ए रास्त पढ़ा है वह जानते हैं कि उर्दू शायरी के समंदर के अस्ल मोती तो उन्हीं को मिलते हैं जो इसकी गहराई में ग़ोते लगते हैं-
इस साईट के क़याम का मकसद यही है कि हम अपने उन साथियों ,जिनकी मादरी ज़बान उर्दू नहीं है, ऐसी शायरी से रूबरू कराएं जो उर्दू की अस्ल और बड़ी शायरी कहलाती है-हम अपने मकसद में कहाँ तक कामयाब होते हैं ये जानने के लिए आप ज़रूरी है की आप अपनी बेलाग राए और तब्सेरों से हमें नवाज़ते रहें-