manuscript

manuscript

Tuesday, December 27, 2011

नासिर काज़मी का कलाम


(जदीद (आधुनिक)उर्दू ग़ज़ल की बुनियाद रखने वाले अज़ीम शायर नासिर काज़मी को नए दौर का "मीर " कहा जाता है-"मीर " की तरह उनको भी आसान ज़बान में दिल और दुनिया के ग़म बयान करने का हुनर आता था-"मीर " ने अगर दिल्ली उजड़ने का दर्द बयान किया था तो नासिर काज़मी ने भारत पाक बटवारे के नतीजे में इंसान और तहजीबों के बिखराव की त्रासदी को शेरों में ढाला है- नासिर काज़मी ने उर्दू ग़ज़ल को बिलकुल नया  लब-ओ-लहजा दिया -नई ग़ज़ल का शायद ही कोई ऐसा शायर होगा जिस ने उनका कुछ न कुछ असर कुबूल न किया हो-सिर्फ 48  साल की उम्र पाने वाले अलबेले शायर नासिर काज़मी की ग़ज़लें जदीद उर्दू अदब का बेश क़ीमती सरमाया हैं)
ग़ज़लें 
(1)
कहीं उजड़ी उजड़ी सी मंजिलें कहीं टूटे फूटे से बाम-ओ-दर

ये  वही  दयार  है  दोस्तों  जहाँ  लोग  फिरते  थे  रात भर


मैं  भटकता  फिरता  हूँ  देर से  यूँही शहर शहर नगर नगर

कहाँ  खो  गया  मेरा क़ाफ़िला कहाँ  रह  गए  मेरे हमसफ़र


जिन्हें  जिंदगी  का शऊर  था उन्हें बे ज़री  ने  बुझा  दिया

जो  गराँ  थे  सीना-ए-ख़ाक पर वही बन के बैठे हैं मो,तबर


मेरी बेकसी का न ग़म करो, मगर अपना फ़ायदा सोच लो

तुम्हें जिस की छाँव अज़ीज़ है मैं उसी दरख़्त का  हूँ समर


ये  बजा  कि  आज  अँधेर  है, ज़रा  रुत  बदलने  की देर है

जो खिज़ां के खौफ़ से खुश्क है वही शाख़ लायेगी बर्ग-ओ-बर 

                                                     (2)


कुछ  यादगार-ए -शहर-ए-सितमगर  ही  ले  चलें 

आए  हैं   इस  गली   में   तो  पत्थर  ही  ले  चलें 


यूँ   किस   तरह  कटेगा  कड़ी   धूप   का   सफ़र 

सर  पर  ख़याल-ए-यार  की  चादर   ही  ले  चलें 


रंज -ए -सफ़र  की  कोई  निशानी  तो  पास   हो 

थोड़ी  सी  ख़ाक-ए-कूचा-ए-दिलबर  ही  ले  चलें 


ये    कह   के   छेड़ती   है  हमें  दिल  गिरफ्तगी   

घबरा   गए   हैं   आप   तो  बाहर  ही   ले   चलें 


इस  शहर -ए -बे चराग़    में  जाएगी  तू   कहाँ 

आ ऐ  शब् -ए -फ़िराक़  तुझे   घर  ही   ले  चलें

                                           
                                                      (3)
गली गली मेरी याद बिछी है प्यारे रस्ता देख के चल

मुझ से इतनी वहशत है तो  मेरी  हदों से दूर निकल


एक समय तेरा फूल सा नाज़ुक हाथ था मेरे शानों पर

एक ये वक़्त के मैं तनहा और दुःख के काँटों का जँगल


याद है अब तक तुझ से बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे

तू  ख़ामोश  खड़ा  था  लेकिन  बातें  करता  था काजल


मैं  तो  एक नई दुनिया की  धुन में भटकता फिरता हूँ

मेरी  तुझ  से कैसे निभे गी एक हैं तेरे फ़िक्र-ओ-अमल


मेरा मुंह क्या देख रहा है  देख  इस काली रात को देख

मैं  वही  तेरा  हमराही  हूँ  साथ  मेरे चलना हो तो चल

                                                       (4)
दुख  की लहर ने  छेड़ा होगा 
याद  ने  कंकर  फेंका  होगा 
आज तो  मेरा दिल कहता है 
तू  इस  वक़्त  अकेला  होगा 
मेरे   चूमे    हुए    हाथों    से 
औरों को ख़त लिखता होगा 
भीग चलीं अब रात की पलकें 
तू  अब  थक  कर सोया  होगा 
रेल  की  गहरी सीटी  सुन कर 
रात  का  जंगल  गूंजा   होगा 
शहर  के   ख़ाली  स्टेशन  पर 
कोई   मुसाफ़िर  उतरा  होगा 
आंगन में  फिर चिड़ियाँ बोलीं 
तू   अब  सो  कर  उट्ठा   होगा 
यादों  की  जलती  शबनम से 
फूल  सा  मुखड़ा  धोया  होगा 
मोती  जैसी  शक्ल  बना कर 
आईने    को   तकता    होगा 
शाम  हुई  अब तू  भी  शायद 
अपने  घर   को   लौटा  होगा 
नीली   धुंधली   ख़ामोशी  में
तारों  की  धुन  सुनता  होगा 
मेरा  साथी   शाम  का   तारा 
तुझ  से आंख मिलाता होगा 
शाम के चलते हाथ ने तुझ को 
मेरा  सलाम  तो   भेजा   होगा 
प्यासी    कुर्लाती   कौंजों   ने 
मेरा   दुख  तो  सुनाया  होगा 
मैं   तो   आज  बहुत  रोया  हूँ 
तू   भी   शायद   रोया   होगा 
‘नासिर’ तेरा  मीत   पुराना 
तुझ  को  याद तो आता होगा
                                                      (5)
दिल में इक लहर सी उठी है अभी 
कोई   ताज़ा  हवा  चली   है  अभी 
शोर  बरपा  है  खाना -ए -दिल  में 
कोई  दीवार   सी  गिरी   है   अभी 
कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी 
और  ये   चोट   भी   नई   है  अभी 
भरी   दुनिया  में  जी  नहीं  लगता 
जाने  किस चीज़ की  कमी है अभी 
तू  शरीक-ए-सुखन नहीं  है तो क्या 
हम -सुखन  तेरी  ख़ामुशी  है  अभी 
याद   के   बे  - निशाँ   जज़ीरों   से 
तेरी   आवाज़   आ   रही   है   अभी 
शहर   की   बे  चराग़   गलियों  में 
ज़िन्दगी  तुझ  को  ढूँढती  है  अभी 
सो   गए   लोग   उस   हवेली   के 
एक  खिड़की  मगर  खुली  है अभी 
तुम  तो   यारो  अभी  से   उठ  बैठे 
शहर   में   रात   जागती   है  अभी 
वक़्त  अच्छा  भी  आयेगा  ‘नासिर’
ग़म  न  कर ज़िन्दगी  पड़ी  है अभी

                                                        (6)
तेरे  मिलने  को  बेकल  हो  गए हैं 
मगर  ये  लोग  पागल  हो  गए हैं 
बहारें   ले के  आये  थे  जहाँ  तुम 
वो  घर सुनसान जंगल हो गए हैं 
यहाँ तक बढ़ गए आलाम -ए -हस्ती 
कि दिल के  हौसले  शल  हो  गए  हैं 
कहाँ  तक  ताब  लाये  ना तवाँ  दिल 
के  सदमे अब  मुसलसल  हो गए हैं 
निगाह-ए-यास  को  नींद  आ  रही  है 
मिज़्हा पुर- अश्क  बोझल  हो  गए  हैं 
उन्हें   सदियों    न   भूलेगा   ज़माना 
यहाँ   जो   हादसे   कल   हो   गए   हैं 
जिन्हें  हम  देख  कर  जीते  थे ‘नासिर ’
वो  लोग  आँखों  से  ओझल  हो  गए हैं
                                                        (7)
नीयत -ए-शौक़  भर  न  जाये  कहीं 
तू  भी दिल  से  उतर  न जाये  कहीं 
आज  देखा   है   तुझे   देर  के  बाद  
आज  का  दिन  गुज़र न जाये कहीं 
ना  मिला   कर   उदास   लोगों   से 
हुस्न   तेरा   बिखर   न  जाये   कहीं 
आरज़ू     है   कि    तू   यहाँ    आये 
और  फिर   उम्र  भर  न  जाये  कहीं 
जी   जलाता   हूँ   और    सोचता   हूँ 
राएगां    ये    हुनर   न   जाये   कहीं 
आओ  कुछ  देर  रो  ही  लें  ‘नासिर ’
फिर  ये  दरिया  उतर  न  जाये कहीं
                                                       (8)
नए  कपड़े  बदल कर जाऊं कहाँ और  बाल  बनाऊं  किस  के  लिए 
वो  शख्स  तो  शहर  ही  छोड़  गया  मैं बाहर जाऊं  किस  के  लिए 
जिस  धूप  की  दिल  में   ठंडक   थी   वो  धूप  उसी  के  साथ  गई 
इन  जलती  बलती  गलियों  में अब  ख़ाक  उड़ाऊँ   किस  के लिए 
वो  शहर  में  था  तो  उस  के  लिए  औरों  से भी मिलना पड़ता था 
अब  ऐसे - वैसे   लोगों   के   मैं    नाज़   उठाऊं    किस   के   लिए 
अब शहर में उस का बदल ही नहीं  कोई वैसा जान-ए-ग़ज़ल ही नहीं 
ऐवान -ए -ग़ज़ल  में  लफ़्ज़ों  के  गुलदान  सजाऊं    किस  के  लिए 
मुद्दत  से   कोई   आया  न  गया   सुनसान  पड़ी  है  घर  की  फ़ज़ा 
 इन  ख़ाली  कमरों  में  ‘नासिर ’ अब शम्मा जलाऊं किस के लिए 


No comments:

Post a Comment