(फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़"की नज़्म "कुत्ते" अपने मौज़ूअ (विषय) और अंदाज़-ए-बयान (treatment) के लिहाज़ से उर्दू की चन्द नादिर (अनोखी) नज्मों में एक शुमार होती है-कुत्ते को प्रतीक बना कर कमज़ोर इंसानों की नियति बयान करना और इन्हीं कमज़ोर इंसानों में इंक़िलाब की चिंगारी तलाश करना और इस ख़याल को खूबसूरत शायरी में ढाल देना फ़ैज़ जैसे अज़ीम कलमकार का ही कारनामा हो सकता है-इन्तेखाबात (चुनाव)के दौरान इस नज़्म को पढने का एक अलग ही मज़ा है)
कुत्ते
ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख्शा गया जिनको ज़ौक-ए-गदाई
ज़माने की फटकार सरमाया इनका
जहाँ भर की दुत्कार इनकी कमाई
न आराम शब् को न राहत सवेरे
गलाज़त में घर गंदगी में बसेरे
जो बिगड़ें तो इक दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाकों से उकता के मर जाने वाले
ये मज़लूम मख्लूक़ गर सर उठाए
तो इंसान सब सरकशी भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आक़ाओं कि हड्डियाँ तक चबा लें
कोई इनको एहसास-ए-ज़िल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दम हिला दे
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