लश्कर ए ज़ुल्मात से
(दुनिया के उन तमाम दहशतगर्दों के नाम जो इन्सान को चैन से मरने भी नहीं देते )
सजा के मक़्तल ए जाँ ज़िन्दाबाद कहते हो
है क़त्ल ए आम जिसे तुम जेहाद कहते हो
ग़मों में डूबे हुए सोगवार चेहरों में
तुम्हें ख़ुद अपनों के चेहरे नज़र नहीं आते
सुनाई देती नहीं नन्ही इल्तिजाएँ तुम्हें
कि जिनके गुमशुदा माँ बाप घर नहीं आते
बजा कि तुमको शिकायत है हुक्मरानों से
मगर ये कैसी सियासत से काम लेते हो
कुसूरवार कोई है तुम्हारी नज़रों में
तो बेकुसूरों से क्यूँ इन्तेक़ाम लेते हो
लहू तो सिर्फ़ लहू है ख़ुदा की नज़रों में
वो गैज़ करता है नाहक़ बहाने वालों पर
निगाह ए रहमत ए आलम में नामुराद है वो
जो जुल्म ढाता है बस्ती में रहने वालों पर
है शौक़ ए जेह्द तो उन जाबिरों से जँग करो
जो ज़हर बो के सियासत की फ़स्ल काटते हैं
सरों पे ताज सलामत रहे बस इसके लिये
बनाम ए मज़हब ओ मिल्लत दिलों को बाटते हैं
उसे मिटाओ जो इंसानियत का ग़ासिब है
वगर्ना खून का ये खेल नामुनासिब है
है उसका हुक्म जो सारे जहाँ पे ग़ालिब है
कि एहतेराम ए लहू आदमी पे वाजिब है
डॉ आमिर रियाज़
Aamir sb kuch nai ghazlen bhi post kar dijiye
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