(उर्दू शायरी का सब से ज्यादा इस्तेमाल गुफ्तगू के दौरान अपनी बात में असर पैदा करने के लिए होता है-अच्छे शेर याद करना और किसी मौके पर पेश करना आदमी की ज़हानत की निशानी समझा जाता है-यूं तो अच्छे शेरों का बर वक़्त इस्तेमाल हमेशा होता आया है लेकिन बहुत से शेर इतने ज्यादा मशहूर हो चुके की उनका इस्तेमाल कहावतों की तरह होता है-कभी पूरा शेर मुहावरा बन जाता है तो कभी शेर का सिर्फ एक मिस्रा(पंक्ति)-ऐसे हजारों शेरों के खजाने से हम यहाँ चन्द मोती पेश कर रहे हैं-)
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बड़े बे आबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले (ग़ालिब )
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क के इम्तेहाँ और भी हैं (इक़बाल )
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहे जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ (ग़ालिब )
ख़ुदी को कर बलंद इतना की हर तकदीर से पहले
खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है (इक़बाल)
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक (ग़ालिब)
आफताब-ए-ताज़ा पैदा बत्न-ए-गेती से हुआ
आसमां टूटे हुए तारों का मातम कब तलक (इक़बाल)
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया (मजरूह सुल्तानपुरी)
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बे हिसाब आये (फ़ैज़)
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा (इक़बाल)
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले (फ़ैज़)
इक शहन्शाह ने बनवा के हसीं ताजमहल
हम गरीबों कि मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़ (साहिर)
जिंदगी ज़िन्दा दिली का नाम है
मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं (नासिख़)
बस कि दुश्वार है हर कम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इन्सां होना (ग़ालिब)
फूल की पत्ती से कट सकता है हीरे का जिगर
मर्द-ए-नादाँ पर कलाम-ए-नर्म-ओ-नाज़ुक बे असर (इक़बाल)
मर्द-ए-नादाँ पर कलाम-ए-नर्म-ओ-नाज़ुक बे असर (इक़बाल)
(क्रमशः )
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