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Sunday, January 22, 2012

पुकारने के लिए इक खुदा ज़रूरी है/शुजा खावर की याद में



(21 जनवरी 2012 की सुबह उर्दू शायरी की एक  बहुत दमदार और अनोखी  आवाज़ हमेशा के लिए खामोश हो गई जिसे  दुनिया शुजा खावर के नाम से जानती है-शुजाउद्दीन साजिद उर्फ़ शुजा खावर आई. पी .एस थे और दिल्ली में डी. सी .पी भी रहे मगर उनका शायराना बल्कि क़ल्न्दराना मिज़ाज पुलिस की नौकरी से किसी तरह मेल नहीं खता था लिहाज़ा उनहोंने वक़्त से पहले रिटायरमेंट ले लिया-कुछ दिनों तक एक सियासी पार्टी भी ज्वाइन की मगर जल्द ही वहां से भी रुखसती ले कर पूरा वक़्त शायरी के लिए वक्फ कर दिया-
शुजा खावर आम तौर पर ग़ज़ल कहते थे मगर उनके मुतफ़र्रिक़(फुटकर)शेर बहुत ज्यादा मशहूर हुए-हम उर्दू पोएट्री ऑनलाइन की जानिब से मरहूम शुजा खावर को ख़िराज-ए-अकीदत पेश करते हुए उनके कलाम से चन्द जवाहर यहाँ पेश कर रहे हैं-अगर आप के ज़ेहन में भी शुजा खावर के कुछ शेर गूँज  रहे हों तो इस फेहरिस्त में इज़ाफ़ा कर सकते हैं--- आमिर रियाज़ )

शुजा खावर का कलाम

मुतफ़र्रिक़(फुटकर)शेर

इस एतबार से बे-इन्तहा ज़रूरी है
पुकारने के लिए इक खुदा ज़रूरी है


शुजा मौत से पहले ज़रूर जी लेना
ये काम भूल न जाना बड़ा ज़रूरी है
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ज़िन्दगी भर ज़िन्दा  रहने  की  यही  तरकीब  है 
उस तरफ जाना नहीं हरगिज़,जिधर की सोचना 
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आप इधर आये उधर दीन और ईमान गए 
ईद का  चाँद  नज़र आया तो रमज़ान गए
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पड़े रहें तो क़लंदर उठें तो फ़ित्ना हैं
 हमें जगाया तो नींदें हराम कर देंगे 
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जिस्मानी  त,अल्लुक़  पे  ये शर्मिंदगी कैसी
आपस में बदन कुछ भी करें इस से हमें क्या

लश्कर  को  बचाएंगी  ये  दो-चार  सफ़ें  क्या
और उन में भी हर शख्स ये कहता है हमें क्या
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क्या  किया जाए  यही  अल्लाह  को  मंज़ूर  है
दिल्ली आकर भी ये लगता है कि दिल्ली दूर है 

ग़ज़लें 

दूसरी  बातों   में  हमको  हो  गया  घाटा  बहुत 
वरना फ़िक्र-ए-शेर को दो वक़्त  का आटा बहुत 

आरज़ू  का  शोर बरपा  हिज्र  की  रातों में था
वस्ल की शब् तो हुआ जाता है सन्नाटा बहुत

दिल की बातें दूसरों से मत कहो कट जाओगे
आजकल  इज़हार  के  धंधे  में है घाटा बहुत

कायनात और ज़ात में कुछ चल रही है आजकल
जब  से अन्दर शोर  है बाहर  है सन्नाटा बहुत

मौत की आज़ादियाँ भी ऐसी कुछ दिलकश न थीं
फिर  भी हमने  ज़िन्दगी  की क़ैद को काटा बहुत 

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पहुंचा  हुज़ूर-ए-शाह  हर  इक  रंग का फ़क़ीर
पहुंचा  नहीं  जो, था  वही  पहुंचा  हुआ फ़क़ीर

वो  वक़्त  का  गुलाम  तो  ये नाम का फ़क़ीर
क्या बादशाह-ए-वक़्त मियां और क्या फ़क़ीर

मुन्दर्जा-ज़ेल  लफ़्ज़ों  के  मानी  तलाश कर
दरवेश, मस्त, सूफी, क़लंदर, गदा, फ़क़ीर

हम  कुछ  नहीं थे शहर में इसका मलाल है
इक शख्स शहरयार था और एक था फ़क़ीर

क्या  दौर आ गया है  कि रोज़ी की फ़िक्र में
हाकिम बना हुआ है इक अच्छा भला फ़क़ीर

इस कशमकश में कुछ नहीं बन पाओगे शुजा
या  शहरयार  बन  के  रहो  और  या  फ़क़ीर  
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