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Sunday, December 04, 2011

आइये हाथ उठाएं हम भी/ फ़ैज़ अहमद "फ़ैज़"

(फ़ैज़ की ये मशहूर  नज़्म लोगों को आम तौर पर याद हो कि न याद हो मगर इसका पहला मिस्रा(पंक्ति) आज भी उन लोगों के जेहन में होगा जिन्हों ने दूर दर्शन पर सीरियल "हम लोग" देखा है, जिसकी शुरूआत और खात्मा इसी मिसरे (आइये हाथ उठाएं हम भी) से होता था-
ये दुआ फ़ैज़ ने उन लोगों के लिए लिखी थी जो इंसानियत के अलावा किसी मज़हब को नहीं मानते, किसी ख़ुदा को नहीं मानते-परंपरा गत तौर पर ख़ुदा से बेज़ार हैं मगर इन्सान के दुःख दर्द दूर करने के लिए उसी तरीके से दुआ माँगना चाहते हैं जैसे एक मज़हबी शख्स मांगता है-मज़हब से बेगाना मगर इंसानियत का परस्तार अगर दुआ के लिए हाथ उठाएगा तो उसका अंदाज़ क्या होगा ?यही इस नज़्म का बुनियादी ख़याल है-फिर भी ये दुआ किसी नास्तिक की नहीं बल्कि ऐसे शख्स की है जिसे ख़ुदा से शिकायत है)

आइये    हाथ    उठाएं    हम    भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं 
हम जिन्हें सोज़-ए-मोहब्बत के सिवा
कोई   बुत   कोई   ख़ुदा   याद   नहीं

आइये   अर्ज़   गुजारें   कि   निगार - ए - हस्ती
ज़हर - ए - इमरोज़  में  शीरीनी-ए-फ़रदा भर दे
वो  जिन्हें  ताब - ए- गरां बारी-ए-अय्याम नहीं
उन की पलकों पे शब-ओ-रोज़ को हल्का कर दे

जिन की आँखों को रूख़-ए-सुब्ह का यारा भी नहीं
उनकी  रातों  में  कोई  शमआ  मुनव्वर  कर  दे
जिनके क़दमों को किसी  रह  का सहारा भी नहीं
 उनकी  नज़रों   पे   कोई   राह   उजागर   कर  दे

जिनका  दीं  पैरवी-ए-कज़्ब-ओ-रिया  है  उनको
हिम्मत-ए-कुफ़्र मिले, जुरअत-ए-तहक़ीक़ मिले
जिन के सर मुन्तज़िर-ए-तैग-ए-जफ़ा हैं उनको
दस्त-ए-क़ातिल को झटक देने की तौफ़ीक़ मिले

इश्क  का  सिर्रे  निहाँ  जान-ए-तपाँ  है जिस से
आज   इक़रार   करें   और   तपिश  मिट  जाए
हर्फ़-ए-हक़ दिल में खटकता है जो कांटे की तरह
आज  इज़हार  करें   और   ख़लिश   मिट   जाए 

 मुश्किल अल्फाज़----सोज़-ए-मोहब्बत---प्रेम की आंच ,निगार-ए-हस्ती---अस्तित्व में लाने वाला   ज़हर-ए-इमरोज़ ...आज का ज़हर , शीरीनी-ए-फ़रदा ...आने वाले कल की मिठास , ताब-ए-गरां बारी-ए-अय्याम...बोझल दिन चर्या झेलने की ताक़त  ,हिम्मत-ए-कुफ़्र---इंकार की हिम्मत,जुरअत-ए-तहक़ीक़---पड़ताल करने का हौसला   दीं ...दीन(धर्म) ,पैरवी-ए-कज़्ब-ओ-रिया...झूट और पाखंड की पैरवी ,मुन्तज़िर-ए-तैग-ए-जफ़ा ...बेवफ़ाई की तलवार से कटने को तैयार  , तौफ़ीक़...प्रेरणा ,सिर्रे  निहाँ ...छुपा हुआ सत्व  ,जान-ए-तपाँ---तप तप के कुंदन बनना-

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