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Thursday, November 10, 2011

मजाज़ की बेहतरीन नज्में(2) /"रात और रेल"

(रात और रेल मजाज़ की सबसे मशहूर नज्मों में एक है-बज़ाहिर ये नज़्म  रात के वक़्त गुज़रती हुई रेल और उस से नज़र आने वाले मंज़रों का शायराना बयान मालूम होती है, मगर गौर से देखें तो ये महज़ एक रेल का सफ़र नहीं है-दरहकीक़त मजाज़ ने रेल के हवाले से रूमान से इन्क़ेलाब तक की दास्तान तहरीर की है, और रेल के स्टार्ट होने से ले कर पूरी रफ़्तार पकड़ने तक की मुख्तलिफ कैफ़ियतों को ज़ेह्नी इन्किलाब का सफ़रनामा बना दिया है-
जिन लोगों ने भाप के इंजन वाली रेल गाड़ियों को सुनसान रास्तों पर भागते देखा है,उन पर बैठ कर सफ़र किया है ,या रेल की पुरानी सीटी और छुक छुक की लय ताल से जुड़े रूमान को महसूस किया है ,उन्हें ये नज़्म पढ़ते वक़्त एक naustelgia का एहसास होना लाज़मी है मगर जिन्हों ने वो दौर नहीं देखा वो भी इस नज़्म की रवानी, तसलसुल और हुस्न से मुतास्सिर हुए बगैर नहीं रह सकते-यही  इस नज़्म की सब से बड़ी कामयाबी है-) 

रात और रेल 


फिर  चली  है  रेल   स्टेशन  से  लहराती  हुई
नीम शब की ख़ामुशी में ज़ेर-ए-लब गाती हुई
डगमगाती , झूमती , सीटी  बजाती , खेलती
वादी-ओ-कुहसार  की  ठंडी  हवा  खाती  हुई
तेज़ झोंकों में वो छमछम का सुरूद-ए-दिलनशीं
आँधियों  में  मंह  बरसने  की  सदा  आती  हुई
जैसे मौजों का तरन्नुम जैसे जलपरियों के गीत
एक  इक  लय  में  हज़ारों  ज़मज़मे  गाती  हुई
नौनिहालों  को  सुनाती  मीठी  मीठी लोरियां
नाज़नीनों  को  सुनहरे  ख़्वाब  दिखलाती हुई
ठोकरें  खा कर लचकती ,गुनगुनाती , झूमती
सरखुशी  में  घुंघरुओं  की  ताल पर गाती हुई
नाज़ से हर मोड़ पर खाती हुई सौ पेच-ओ-ख़म 
इक  दुल्हन  अपनी अदा से आप  शरमाती हुई
रात की  तारीकियों  में  झिलमिलाती , कांपती
पटरियों  पर  दूर  तक  सीमाब  छलकाती  हुई
जैसे आधी रात को निकली हो इक शाही बरात
शादियानों  की  सदा  से  वज्द  में  आती  हुई
मुन्तशिर कर के फ़ज़ा में जा-ब-जा चिंगारियां
दामन-ए-मौज-ए-हवा  में  फूल  बरसाती  हुई
तेज़ तर होती हुई मंज़िल-ब-मंज़िल दम-ब-दम
रफ़्ता  रफ़्ता  अपना  असली  रूप दिखलाती हुई
सीना-ए-कुहसार  पर  चढ़ती  हुई  बे अख्तियार
एक  नागिन  जिस  तरह मस्ती में लहराती हुई
इक  सितारा  टूट  कर  जैसे  रवां  हो  अर्श  से
रिफ़अत-ए-कुहसार  से  मैदान  में  आती  हुई
इक  बगूले   की  तरह  बढती  हुई   मैदान  में
जंगलों  में  आँधियों  का  ज़ोर दिखलाती  हुई
रा,शा-बर-अन्दाम करती अंजुम-ए-शब्ताब को
आशियाँ  में  तायर-ए-वहशी  को  चौंकाती  हुई
याद  आ  जाए  पुराने   देवताओं   का   जलाल
उन  क़यामत  खेज़ियों  के साथ बल खाती हुई
एक  रख्श-ए-बे अनाँ की बर्क रफ्तारी के साथ
ख़न्दकों  को   फांदती  टीलों  से  कतराती  हुई
मुर्ग़ ज़ारों  में  दिखाती  जू-ए-शीरीं  का खराम
वादियों  में   अब्र  के  मानिन्द  मंडलाती  हुई
इक  पहाड़ी  पर  दिखाती आबशारों की झलक
इक  बियाबाँ  में  चिराग़-ए-तूर दिखलाती हुई
जुस्तजू में मंजिल-ए-मक़सूद की दीवाना वार
अपना सर धुनती  फ़ज़ा में बाल बिखराती हुई
छेड़ती इक वज्द के आलम में साज़-ए-सरमदी
गैज़  के  आलम  में  मुंह  से  आग बरसाती हुई
रेंगती  , मुड़ती  , मचलती , तिलमिलाती, हाँपती    
अपने दिल की आतिश-ए-पिन्हाँ को भड़काती हुई
ख़ुद ब ख़ुद  रूठी हुई , बिफरी हुई , बिखरी हुई
शोर-ए-पैहम से दिल-ए-गेती को धड्काती हुई
पुल पे दरिया के दमादम कौन्द्ती,ललकारती
अपनी  इस  तूफ़ान  अंगेज़ी  पे  इतराती   हुई
पेश  करती  बीच  नद्दी  में  चरागाँ  का समाँ
साहिलों  पर  रेत  के  ज़र्रों  को चमकाती हुई
मुंह में घुसती है  सुरंगों के यकायक दौड़ कर
दनदनाती , चीखती , चिन्घाड़ती , गाती हुई
आगे आगे  जुस्तजू आमेज़  नज़रें  डालती
शब्  के हैबतनाक  नज्ज़ारों से घबराती हुई
एक मुजरिम की तरह सहमी हुई सिमटी हुई
एक  मुफ़लिस   की तरह सर्दी  में थर्राती हुई
तेज़ी-ए-रफ़्तार के सिक्के जमाती जा-ब-जा
दश्त-ओ-दर में जिंदगी की लहर दौड़ाती हुई
डाल  कर  गुज़रे ज़मानों पर अँधेरे का नक़ाब
इक  नया  मन्ज़र  नज़र के सामने लाती हुई
सफहा-ए दिल से मिटाती अह्द-ए-माज़ी के नक़ूश
हाल-ओ-मुस्तक़बिल के दिलकश ख़्वाब दिखलाती हुई
डालती  बेहिस  चटानों  पर  हिक़ारत  की  नज़र
कोह पर हँसती  फ़लक  को आँख दिखलाती हुई
दामन-ए-तारीकी-ए-शब  की  उड़ाती  धज्जियाँ
क़स्र-ए-ज़ुल्मत पर मुसलसल तीर बरसाती हुई
ज़द में कोई चीज़ आ जाए तो उसको पीस कर
इर्तेक़ा- ए- ज़िन्दगी  के  राज़   बतलाती   हुई
ज़ो,म  में  पेशानी-ए-सहरा  पे  ठोकर  मारती
फिर सुबक रफ्तारियों के नाज़ दिखलाती हुई
एक सरकश  फ़ौज की सूरत अलम खोले हुए
एक   तूफ़ानी   गरज   के   साथ   दर्राती   हुई
एक इक हरकत से अंदाज़-ए-बग़ावत आशकार
अज़्मत-ए-इंसानियत  के  ज़मज़मे  गाती  हुई
हर क़दम पर तोप की सी घन गरज के साथ साथ
गोलियों  की   सनसनाहट   की   सदा  आती  हुई
वो  हवा  में  सैकड़ों  जंगी  दहल  बजते  हुए
वो बिगुल की जाँफिज़ा आवाज़ लहराती हुई
अल्गरज़ बढती चली जाती है बे खौफ़-ओ-ख़तर
शायर-ए-आतिश नफ़स  का  खून  खौलाती  हुई

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