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Saturday, November 05, 2011

मजाज़ की बेहतरीन नज्में(1) /"आवारा"

(उर्दू की तरक्की पसंद तहरीक(progressive movement ) से वाबस्ता अपने ज़माने के सब से मकबूल शायर असरार-उल-हक "मजाज़" को उर्दू का keats कहा जाता है-मजाज़ की नज्मों में बला का हुस्न,रूमान,इन्किलाबी एहसास और असर पाया जाता है-अलीगढ यूनिवर्सिटी का तराना मजाज़ का ही लिखा हुआ है ,जिस ने उनकी शोहरत को लाफ़ानी बना दिया है-"आवारा" मजाज़ की सब से मशहूर नज़्म है जिसके बारे में फ़िराक़ ने कहा था " ये नज़्म ऐसी है जैसे बारूद पर चिंगारी रक़स कर रही हो"-मजाज़ की पैदाइश के सौ साल पूरे होने पर हम उनको उन्हीं की नज्मों के ज़रिये खिराज पेश कर रहे हैं-)
आवारा 

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती  जागती  सड़कों  पे   आवारा  फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है कब तक  दर ब दर मारा फिरूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ


झिलमिलाते  क़ुमकुमों  की राह में ज़ंजीर  सी
रात  के  हाथों  में   दिन की मोहनी तस्वीर  सी
मेरे  सीने  पर  मगर  चलती  हुई  शमशीर सी
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ 


ये  रुपहली  छाँव ये आकाश  पर  तारों का जाल
जैसे  सूफी का तसव्वर जैसे आशिक का ख्याल
आह लेकिन कौन समझे कौन जाने जी का हाल
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ 


फिर वो टूटा इक सितारा फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने  किस  की  गोद  में  आई ये मोती की लड़ी
हूक  सी  सीने  में  उट्ठी  चोट  सी  दिल  पर पड़ी
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ

रात हँस हँस कर ये कहती है कि मैख़ाने में चल 
फिरकिसी शहनाज़-ए-लालारुख के काशाने में चल
ये  नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल  
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ

हर  तरफ  बिखरी  हुई  रंगीनियाँ , रानाइयाँ
हर  क़दम  पर  इशरतें लेती  हुई अंगड़ाइयाँ
बढ़   रही   हैं  गोद   फैलाए   हुए   रुस्वाइयाँ 
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ

रास्ते  में  रुक के दम  ले लूँ  मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊं मेरी फितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाए ये क़िस्मत नहीं 
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ


मुन्तजिर  है  एक  तूफ़ान-ए-बला  मेरे  लिए
अब  भी जाने  कितने  दरवाज़े हैं वा मेरे लिए 
पर  मुसीबत  है मेरा अहद-ए-वफ़ा  मेरे  लिए
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ


जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उनको  पा सकता हूँ  मैं  ये  आसरा  भी  छोड़ दूँ
हाँ  मुनासिब है कि ये ज़ंजीर-ए-हवा  भी तोड़ दूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ

इक महल कि आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला  का अमामा  जैसे बनिए कि किताब
जैसे  मुफलिस की जवानी  जैसे  बेवा  का शबाब
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ



दिल में इक शोला भड़क उट्ठा है आखिर क्या करूँ
मेरा  पैमाना  छलक  उट्ठा   है  आखिर  क्या  करूँ
ज़ख्म  सीने  का  महक  उट्ठा है आखिर क्या करूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ



जी  में  आता  है  ये  मुर्दा  चाँद  तारे  नोच  लूँ
इस  किनारे  नोच लूँ  और उस किनारे नोच लूँ
एक  दो  का  ज़िक्र  क्या  सारे के सारे  नोच लूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ



मुफलिसी  और  ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने
सैकड़ों  चंगेज़-ओ-नादिर   हैं  नज़र  के  सामने
सैकड़ों  सुल्तान-ओ-जाबिर  हैं नज़र के  सामने
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ


ले  के  इक  चंगेज़  के  हाथों  से  ख़ंजर तोड़  दूँ
ताज  पर  उसके  चमकता  है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई  तोड़े  या  न तोड़े  मैं  ही  बढ़  कर  तोड़  दूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ


बढ़ के इस इन्दर सभा का साज़-ओ-सामां फूँक दूँ
इसका  गुलशन  फूँक दूँ  उसका शबिस्ताँ  फूँक दूँ
तख़्त-ए-सुल्तां क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्तां फूँक दूँ
                           ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए दिल क्या करूँ



1 comment:

  1. An incredible work by Majaaz. Having been a student at AMU, our introduction with him has been with Taraana. Ye Mera Chaman.......We 'll never forget him.
    Hifzur

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