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Saturday, November 19, 2011

परवीन शाकिर का कलाम


ग़ज़ल   


 कुछ  तो  हवा  भी सर्द थी  , कुछ था  तेरा ख्याल भी
दिल  को  ख़ुशी  के साथ साथ  होता  रहा  मलाल भी

बात  वो  आधी   रात  की , रात  वो   पूरे  चाँद  की
चाँद  भी  ऐन  चैत  का  उस  पर   तेरा  जमाल भी

सब  से नज़र  बचा  के वो मुझको कुछ ऐसे देखता
एक दफ़ा तो रुक गई  गर्दिश-ए-माह-ओ-साल भी

दिल तो चमक सकेगा क्या फिर भी तरश के देख लें 
शीशा  गरान-ए-शहर  के  हाथ  का  ये   कमाल  भी

उसको  न पा सके थे  जब  दिल  का अजीब हाल था 
अब  जो  पलट  के देखिये  बात थी  कुछ मुहाल  भी

मेरी तलब था एक शख्स वो जो नहीं  मिला तो फिर
हाथ   दुआ  से   यूँ   गिरा    भूल   गया  सवाल   भी

उसकी   सुख़न  तराज़ियाँ   मेरे   लिए  भी  ढाल  थीं 
उस की हंसी में  छुप  गया अपने  ग़मों  का हाल  भी

गाह करीब-ए-शाह-ए-रग गाह बईद-ए-वहम-ओ-ख्वाब 
उस  की  रिफाक़तों  में  रात  हिज्र  भी  था  विसाल भी

उसके  ही   बाजुओं  में  और   उसको   ही  सोचते   रहे 
जिस्म  की  ख्वाहिशों  पे  थे   रूह   के  और  जाल  भी

शाम   की  नासमझ   हवा  पूछ   रही   है    इक   पता 
मौज ए हवा-ए -कूए-यार  कुछ  तो   मेरा  ख्याल  भी

मुश्किल अल्फाज़----शीशा  गरान -- कांच ka सामान बनाने वाले ,गर्दिश-ए-माह-ओ-साल -- समय चक्र ,सुख़न  तराज़ियाँ  -- बोल चाल की कला ,गाह --कभी ,शाह-ए-रग --गर्दन की नस (जिसे जीवन की रग कहते हैं), बईद-ए-वहम-ओ-ख्वाब -- सपनों और भ्रम से परे ,रिफाक़तों -- निकटताओं, हिज्र-- विरह ,विसाल-- मिलन,कूए-यार -- यार की गली 

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